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श्रीविष्णुगीता।


श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामस परिचक्षते ॥ ७१ ॥
प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षञ्च या वेत्ति बुद्धिः सा सात्त्विकी सुराः!॥ ७२ ।।
यया धर्ममधर्मञ्च कार्यञ्चाकार्यमेव च।
अयथावत् प्रजानाति बुद्धिः सा राजसी मता ॥ ७३ ॥
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धिः सा तामसी मता ॥ ७४ ।।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।।
योगेनाव्यभिचारिण्या देवाः ! सा सात्त्विकी धृतिः ।।७५ ॥
यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽमराः !।
प्रसङ्गेन फलाकांक्षी धृतिः सा राजसी मता ॥ ७६ ॥
यया स्वप्नं भयं शोकं विपादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा तामसी सुराः । ॥ ७७ ॥


(सत्पात्रमें) अन्नदानशून्य, मन्त्रहीन, दक्षिणाहीन और श्रद्धारहित यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं ॥ ७ ॥ हे देवतागण ! प्रवृत्ति निवृत्ति, कार्य्य अकार्य, भय अभय और बन्ध मोक्ष जो जानती है वह सात्त्विकी बुद्धि है ॥ ७२ ॥ जिसके द्वारा धर्म अधर्म और कार्य अकार्य यथावत् परिज्ञात न हो उसको राजसी बुद्धि कहते हैं ॥ ७३ ॥ जो बुद्धि अधर्म को धर्म मानती है और सब विषयोंको विपरीत मानती है उस तमोगुणाच्छन्न बुद्धिको तामसी बुद्धि कहते हैं ॥७४॥ हे देवतागण ! योगके द्वारा विषयान्तर धारणा न करनेवाली जिस धृतिसे मन प्राण और इन्द्रियोंकी क्रिया धारण की जाती है अर्थात् नियमन होती है वह धृति सात्त्विकी धृति है ॥७५ ॥ हे देवतागण ! जिस धृतिके द्वारा (जीव) धर्म अर्थ और कामको धारण करता है एवं प्रसङ्गवश फलाकाङ्क्षा होता है उस धृतिको राजसी कहते हैं ॥ ७६ ॥ हे देवतागण ! विवेकहीन व्यक्ति जिसके द्वारा निद्रा, भय, शोक, विषाद और अहङ्कारका त्याग