वस्तुतो मेऽष्टधा भिन्ना प्राधान्यात्मकृतिर्मता ।
जगत्प्रसविनी शक्तिर्युष्माभिरवधार्यताम् ॥ १५ ॥
अन्या चेतनमय्यस्ति प्रकृतिर्जीवमुक्तिदा।
उक्ताष्टप्रकृतेर्भिन्ना यां हि पश्यन्ति योगिनः॥ १६ ॥
मम प्रकृतिसम्भूतसंसारस्य सुरर्षभाः ।
सृष्टिः प्रवाहरूपेण ह्याद्यन्ता प्रकीर्तिता ॥ १७ ॥
अपि ब्रह्माण्डसङ्घस्यानन्तत्वे प्रकृतिर्मम ।
प्रतिब्रह्माण्डमेवासौ सृष्टिस्थिीतलयान्खलु ॥ १८ ।।
स्वयं करोति दुर्जेया जीवैर्मद्वशवर्तिनी ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां रूपेणाऽहं सहायवान् ॥ १९ ॥
सृष्टिस्थितिलये वर्त्ते प्रतिब्रह्माण्डमेव हि।
स्वस्वशक्तयाश्रयान्नूनं त्रय एते हि हेतवः ॥ २० ॥
सृष्टिस्थितिलयानां वै भवन्ति सुरसत्तमाः ।
ब्रह्मा मच्छक्तिमाश्रित्य जीवकर्मानुसारतः ॥ २१ ॥
विभक्त कहते हैं ॥ १४॥ वास्तवमें प्रधानतः मेरी शक्तिरूपिणी जगत्प्रसविनी प्रकृति अष्टधा विभक्त है. सो आप जानें ॥१५॥और चेतनमयी प्रकृति जो जीवको मुक्त करती है, वह इससे अलग है जिसको योगी लोग उक्त आठ प्रकारकी प्रकृतिसे भिन्न देखते हैं ॥१६॥ हे देवगण ! मेरी प्रकृतिसे उत्पन्न इस संसारकी सृष्टि प्रवाहरूपसे ही अनादि अनन्त कही गई है ॥ १७ ॥ ब्रह्माण्डसमूहके अनन्त होने पर भी प्रत्येक ब्रह्माण्डकी ही उत्पत्ति स्थिति और लय. जीवों के द्वारा दुर्ज्ञेया यह मेरी प्रकृति मेरे वशमें रहकर स्वयं ही करती है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूपसे सृष्टि स्थिति और लयमें सहायक रहता हूँ । हे श्रेष्ठ देवगण ! वे ही तीनों अपनी अपनी शक्तिको आश्रय करके ही उत्पत्ति स्थिति और लयके कारण होते हैं । हे देवगण ! ब्रह्मा मेरी शक्तिका आश्रय लेकर जीवोंके पूर्वकर्मके अनुसार तथा