पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१६८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

१४८ PS श्रीविष्णुगीता।

जगन्निवास ! ते स्वामिन्नपारकृपयाऽधुना ॥ ९३ ।। मोहतापविनिर्मुक्ताः सन्तश्च निर्भया वयम् । वीतसन्देहसन्दोहाः कृतकृत्या अभूम ह ॥ ९४ ।। सर्वं हि साम्प्रतं विश्वं भाति नः स्वकुटुम्बवत् । राक्षसासुरमर्त्याश्च सन्त्यात्मीया हि नोऽधुना ॥ ९५ ॥ साम्यबुद्धौ प्रजातायामेवं नाथ ! प्रतीयते । अत एवम्बिधेदानीमिच्छा नो जायते स्वतः ।। ९.६ ।। यज्ज्ञानमुपदिष्टं नस्त्वयापारदयावशात् । तस्य सर्वेषु लोकेषु प्रचारोऽस्तु निरन्तरम् ।। ९७ ।। कर्मभूमौ भवेन्नूनं मर्त्यलोके विशेषतः । प्रचारः सर्वथा नाथ ! ज्ञानस्यास्य दयाम्बुधे ! ।। ९८ ।। यतो मनुष्यलोको नः सम्वृद्धेर्मुख्यकारणम् । इदानीं करुणासिन्धो ! बुद्धिर्नः समतां गता ॥ ९९ ।। हे दयानिधे ! हे स्वामिन् ! अब आपकी अपार कृपासे हमलोग मोह- रहित तापरहित और भयरहित तथा सर्वसंशयरहित होकर कृतकृत्य हुए है ॥ ६३-६४ ॥ अब समस्त विश्वही कुटुम्बवत् हम लोगोंको प्रतीत होता है, इस समय असुर राक्षस और मनुष्य हमारे आत्मीय हैं ॥ ५ ॥ हे नाथ ! साम्यबुद्धि उत्पन्न होनेसे हमलोगोंको ऐसा प्रतीत होने लगा है इस कारणही अब हमलोगोंकी स्वतः ऐसी इच्छा हो रही है कि आपने अपार कृपावश जो हम लोगोंको ज्ञानोपदेश दिया है उसका निरन्तर प्रचार सब लोकोंमें होजाय ।। ६६-६७ ॥ हे नाथ ! हे दयाम्बुधे ! विशेषतः कर्मभूमि मनुष्यलोकमें इस ज्ञानका प्रचार सब प्रकारसे अवश्य हो क्योंकि मनुष्यलोकही हमलोगोंके संवर्द्धनका प्रधान कारण है । हे करुणा सिन्धो ! अब हमलोगोंकी बुद्धि समतामें पहुंच गई है ॥ ६-६६ ॥