पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१५९

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श्रीविष्णुगीता । १३९ सनातनस्त्वं पुरुषो मतो नः । प्रभोऽतितेजोमयमादिहीन- मनन्तमप्येकमनेकवर्णम् ॥ ३८ ॥ अचिन्तनीयं ह्यवितर्कणीयं किलामितैरङ्गभरैः सुपूर्णम् । पश्यन्त आश्चर्यकरं प्रदीप्तं विराट्शरीरं तव विस्मिताः स्मः ॥ ३९ ।। धृतिन्न विन्दाम इह त्वदीये कायेऽमिताँस्तान्मसमीक्ष्य लोकान् । प्रसीद देवेश ! जगन्निवास ! त्वमेव नः सम्मत आदिदेवः ॥ ४० ॥ अहो किमाश्चर्यमिदं विभाति क्षुद्रात् समारभ्य तृणादसीम्नः ।

ब्रह्माण्ड-पर्यन्तविशालसृष्टेः रहित हैं, सनातनधर्मके रक्षक हैं और आप सनातन पुरुष हैं, यह हमारा मत है । हे प्रभो ! आपके अतितेजोमय, आदिहीन, अनन्त होनेपर भी एक, अनेकवर्ण, अचिन्त्य,अवितर्क्यं, अगणित अवयवोंसे पूर्ण,विस्मयकर और देदीप्यमान विराट् शरीरको देखते हुए हम विस्मित हो रहे हैं ॥३८-३६॥ हे जगन्निवोस ! हे देवेश ! इस आपके (विराट् ) शरीरमें उन अगणित लोकोंको देखकर हम धृतिको लाभ नहीं कर रहे हैं ( इसलिये) आप प्रसन्न हो, हमारा मत है कि आप ही आदिदेव हैं ॥ ४०॥ अहो ! यह क्या चमत्कार शोभायमान हो रहा है । एक क्षुद्र तृणसे लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त जो असीम विशाल सृष्टि है उसकी उत्पत्ति, स्थिति और लयकेलिये अनेक