पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१४४

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श्रीविष्णुगीता। सङ्गात्संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥ १०५ ॥ क्रोधात् भवति संमोहः संमोहात् स्मृतिविभ्रमः ।। स्मृतिभ्रंशाबुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥ १०६॥ रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ १०७ ॥ प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।। १०८ ॥ नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥१०९॥ इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । योगीकी आसक्ति विषयों में होजाती है और आसक्तिसे काम उत्पन्न होता है एवं कामसे क्रोध उत्पन्न होता है ॥ १०५ ॥ क्रोधसे सम्मोह होता है,सम्मोहसे स्मृतिविभ्रम, स्मृतिके भ्रष्ट होनेसे बुद्धिका नाश और बुद्धिनाशले (जीव) नष्ट होजाता है अर्थात् घोररूपसे पतित होजाता है ।। १०६ ॥ किन्तु रागद्वेषसे रहित आत्मवशीभूत इन्द्रियोंके द्वारा विषयभोग करनेपर जिसका मन वशीभूत है ऐसा व्यक्ति प्रसाद (आत्मप्रसाद-परमप्रसन्नता) अर्थात् शान्तिलाभ करता है ॥ १०७॥ आत्मप्रसाद प्राप्त करनेपर योगीके सब दुःख नष्ट होजाते हैं क्योंकि प्रसन्नचित्त व्यक्तिकी बुद्धि शीघ्र प्रतिष्ठित अर्थात् आत्मनिष्ठ होजाती है ॥ १०८ ॥ (ब्रह्ममें) अयुक्त व्यक्तिकी (आत्मविषयिणी)बुद्धि नही होती है, अयुक्त व्यक्तिको भावना अर्थात् आत्मविषयक ध्यान भी नहीं होता है, आत्मध्यानविहीन व्यक्तिको शान्ति नहीं मिलती और शान्तिहीन व्यक्तिकेलिये (मोक्षानन्दरूप) सुख कहाँ ? ॥ १०६॥ क्योंकि जिस प्रकार वायु (असावधान कर्णधारवाली ) नौकाको जलमें डुबा देता है उसी प्रकार इन्द्रियां जिधरको जाती है उसी ओर जो मन लगायाजाता है तो