पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३०

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११. श्रीविष्णुगीता। साहाय्येन तु विद्याया योगी मुक्तोऽथ बन्धनात् । देवाः! सृष्टेर्लयं कुर्वन् क्षिप्रं मामेति निश्चितम् ॥ २२ ॥ अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा शान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ २३ ॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ २४ ॥ असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यञ्च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ २५ ॥ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ २६ ॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ २७ ॥ निश्चितं वच्मि वो देवाः ! श्रीगुरोर्दयया विना । होती है॥२१॥और विद्याकी सहायतासे योगी बन्धनसे मुक्त होकर हे देवगण ! सृष्टिका विलय करता हुआ शीघ्र मुझको ही प्राप्त होता है ॥ २२॥ आत्मश्लाघाराहित्य, दम्भहीनता, परपीड़ात्याग,सहिष्णुता, सरलता. गुरुसेवा, अन्तःशुचिता और बहिःशुचिता, स्थिरता, मन:संगम विषयों में वैराग्य, अहङ्कारराहित्य, जन्म मृत्यु जरा और व्याधिमे दुःख और दोषका अनुदर्शन अर्थात् स्पष्ट उपलब्धि, पुत्र स्त्री गृह आदिमें अनासक्ति और उनके सुख दुःखमें सुखी दुःखी न होना. इष्ट और अनिष्टकी प्राप्ति होनेपर सर्वदा चित्तकी समानता. मुझमें अनन्य योग ( सर्वत्र समदृष्टि ) द्वारा अव्यभिचारिणी न्य ) भक्ति, निर्जन स्थानमें रहना, लोकसमाजमें वैराग्य, आत्मज्ञानपरायणता और तत्त्वज्ञानके फल (मोक्ष) का दर्शन, ये ज्ञान के लक्षण कहे जाते हैं इनसे विपरीत जो लक्षण है वेही अज्ञानके लक्षण हैं।।23-27।। ॥२३-२७ ॥ हे देवतागण ! मैं आपलोगोंको निश्चय करके