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श्रीविष्णुगीता।


भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वभूतमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ ३४ ॥ उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ३५॥ वन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनैवात्मात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्त्ततात्मैव शत्रुवत् ॥ ३६॥
योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥३७॥"
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।।


३३ ॥ मुझको यज्ञों और तपस्याओंका भोक्ता, सकल लोकोका महान् ईश्वर और सकल प्राणिमात्रका सुहृद समझकर साधक मोक्षको प्राप्त होता है ॥ ३४॥ आत्माके द्वारा अर्थात् बुद्धिके द्वारा आत्माका अर्थात् मनका उद्धार करना चाहिये, आत्माको अर्थात् मनको नीचे न गिरने दिया जाय क्योंकि मेरी ओर खिंचा हुआ आत्मा अर्थात् मनही अपना अर्थात् साधकका बन्धु. हैं और नीचेकी ओर अर्थात् इन्द्रियादिकमें खिंचा हुआ आत्मा अर्थात् मनही अपना अर्थात् साधकका शत्रु है ॥ ३५ ॥ जिस उपासकने अपनी आत्मा अर्थात् बुद्धि के द्वारा मनको वशीभूत कर लिया है उसीकी आत्मा अर्थात् मन अपना अर्थात् उपासकका बन्धु है; परन्तु अजितेन्द्रिय व्यक्तिकी आत्मा अर्थात् बुद्धि ही शत्रुतामें शत्रुवत् प्रवृत्त हुआ करती है ॥ ३६ ॥ योगीको उचित है कि सब समय एकान्तमें अवस्थित रहकर एकाकी,संयतचित्त,संयतात्मा, इच्छाशून्य और परिग्रह शून्य होकर मनको समाहित करे ॥ ३७॥ पवित्र स्थानमें कुशासनके ऊपर मृगचर्म और उसके ऊपर रेशमका वस्त्र रखकर न बहुत ऊँचा न बहुत नीचा अपना स्थिर आसन स्थापन करके और उस आसनपर बैठकर मनको एकाग्र करके चित्त और इन्द्रियोंकी