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श्रीविष्णुगीता।


रागात्मिकायां भक्तौ हि तदा मज्जति सत्वरम् ॥ २७ ॥ उन्मज्जति मुहुस्तद्वत् भाग्यवान् साधकोत्तमः।
भक्तिरेषा पराभक्तेर्जननी वर्त्तते सुराः ! ॥ २८॥
उपास्तेः प्राणरूपास्ति भक्तिर्हि मामकी सुराः।
क्रियायोगः शरीरं स्याच्चतुर्धा स प्रकीर्तितः ॥ २९ ।।
नाम्ना मन्त्रहठावेतौ लयराजौ तथैव च ।
अधिकारस्य भेदेन विज्ञेयास्ते सुरोत्तमाः ! ॥३०॥
गुरोर्वै कृपयेमानि लभ्यंते साधकैर्ध्रुवम् ।
मत्प्राप्तिसाधनानीति प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ३१॥
स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यान् चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ ३२ ॥ यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिमोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ ३३ ॥


का अभ्यास होजाता है तब मेरी रागात्मिका भक्तिमें वह भाग्यवान् श्रेष्ठ साधक शीघ्र उन्मज्जन और निमज्जन वारवार करने लगता है। हे देवतागण ! यह भक्ति पराभक्तिको उत्पन्न करनेवाली है॥२७॥ २८ ॥ हे देवगण ! मेरी भक्ति उपासनाकी प्राणरूपा और क्रियायोग शरीररूप है । हे देवश्रेष्ठो! क्रियायोगके भी अधिकारभेदसे चार भेद हैं, वे मन्त्र हठ लय और राज नामसे जानेजाते हैं। ॥ २९-३०॥ गुरुकृपासे ही मेरी प्राप्तिके इन साधनोंको साधक निश्चय लाभ करते हैं, इस बातको पण्डितगण कहते हैं ॥ ३१॥ रूप रसादि बाह्य विषयोंको बाहर ही रखकर दृष्टिको दोनों भ्रुओंके बीचमें रखकर नासिकाके भीतर विचरण करनेवाले प्राण और अपान वायुको समान करके अर्थात् समभावसे चलनेवाला बना करके इन्द्रिय मन और बुद्धिका संयम करनेवाला, मोक्षपरायण और इच्छा भय एवं क्रोधशून्य जो मुनि है वही सदा मुक्त है ॥ ३२