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श्रीविष्णुगीता।


अहं हि लोके मायातोऽवतीर्य समये सुराः!
भक्तिं ददामि भक्तेभ्यो येन नन्दन्ति ते सदा ॥ १५ ॥
नैवात्र विस्मयः कार्यः सन्देहो वा कथञ्चन ।
धर्मसंरक्षणं देवाः ! रोचते मे निरन्तरम् ॥ १६ ॥
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥१७॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति निर्जराः ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ १८ ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ १९ ॥
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽमराः ! ॥२०॥ वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामपाश्रिताः।


आवेश आदि विविध रूपोंसे समयपर जगत्में मायावलम्बनसे अवतीर्ण होकर भक्तोंको भक्ति प्रदान करता हूं जिससे वे सदा आनन्दित रहते है॥ १-१५॥ हे देवतागण ! धर्मकी निरन्तर रक्षा करना मुझको अत्यन्त प्रिय है, इसमें किसी प्रकार कुछ भी सन्देह या विस्मय नहीं करना ॥१६॥ जन्मरहित अविनश्वर और प्राणिमात्रका ईश्वर होकर भी मैं अपनी प्रकृतिपर अधिष्ठान करके अपनी मायाके द्वारा उत्पन्न होता हूं ॥१७॥ हे देवगण ! जब जब धर्मपर ग्लानि और अधर्मका आधिक्य होता है उसी समय मैं आविर्भूत होता हूँ॥१८॥ साधुओंकी रक्षाके लिये, दुष्कर्मकारियोंके नाशके लिये और धर्मके संस्थापनके लिये मैं युग युगमें अवतार धारण करता हूँ॥ १९ ॥ हे देवगण! जो मेरे इस प्रकार के अलौकिक जन्म और कर्मको यथार्थरूपसे जानता है वह देहत्याग करके फिर जन्म ग्रहण नहीं करता है और मुझको प्राप्त १२