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श्रीविष्णुगीता।


तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदहिकम् |
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ विबुधर्षभाः ! ॥ १८ ॥ पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ९९ ॥ प्रयत्नादयतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥ १० ॥
अन्तकाले च मामेव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् ।
' यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ १०१ ॥
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवेति भो देवाः ! सदा तद्भावभावितः ॥ १०२॥ तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।


ऐसा जन्म होना जगत्में निश्चय ही दुर्लभतर है ॥ ७॥ हे देवगण ! वह उक्त दोनों प्रकारके जन्मों में ही पूर्वजन्ममें उत्पन्न ब्रह्मविषयक बुद्धि-संयोगको प्राप्त करता है और मोक्षके विषयमें अधिक प्रयत्न करता है॥८॥ पूर्वजन्मका अभ्यास ही उसको अवश करके ब्रह्मनिष्ठ बनादेता है क्योकि योगके स्वरूपको जाननेकी इच्छा करनेवाला व्यक्ति भी वेदके शब्दसम्बन्धी स्वरूपको अतिक्रमण करजाता है ॥६॥ और प्रयत्नपूर्वक साधन करनेवाला योगी पापरहित होकर अनेक जन्मोंमें योगसिद्ध होकर तत्पश्चात् परम गतिको प्राप्त होता है ।। १०० ॥ शरीरान्तके समय मुझको स्मरण करते करते जो देह त्याग करता है वह मेरे भावको प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं ॥ १०९ ॥ देहान्तके समय जिस जिस भावका स्मरण करते करते वह योगी देहत्याग करता है, हे देवतागण ! सर्वदा उसी उसी भावनामें चित्तके स्थित रहनेके कारण उसी उसीभावको ही प्राप्त होता है ॥१०२॥ मेरी सम्मतिमें योगी तपस्वियोंसे भी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोसे भी श्रेष्ठ है और कर्म