पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/५

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भूमिका

 कश्मीर के शैव-शास्र-साहित्य रूपी आकाश को जिन अनेक शैव-शास्त्र आचार्य रूपी तारों ने अपनं। कृतियों के प्रकाश से सदा के लिए देदीप्यमान और उज्ज्वल बनाये रखा है, उन में से एक प्रमुखं तारा कहलाये जाने का गौरव जिस को प्राप्त हो सकता है, वह अचर्यं उत्पल देव जी हैं । न केवल शैव-दर्शन संबंधी मूल ग्रन्थों के उत्कृष्ट लेखक तथा उच्च कोटि के दार्शनिक के रूप में ही वरन् एक कुशल टीकाकार के रूप में भी इन की ख्याति सदा अमर रहेगी ।

 संस्कृत के बड़े-बड़े महाकवियों की भाँति शैव-शास्त्र के आचार्यों ने भी अपनी कृतियों में अपने तथा अपने जीवन के विषय में कुछ भी नहीं लिखा है । उन्हों ने इस संबंध में मौन का श्राश्रय लेना ही उचित समझा। अपने विषय में लंबी चौड़ी बातें लिख कर सामान्य लेखक यश को प्राप्त करना चाहते हैं, पर इन महान् आचाय को यश की प्राप्ति की लालसा भला क्यों होती, जब कि यश आपसे आप ही इन के चरण-कमलों को चूमता रहा है । आचर्यं उत्पल देव जी के विषय में भी कुछ जानने के लिए उपयुक्त सामग्री उपलब्ध नहीं है । फलतः पाठकों को प्राचार्य जी की जीवन-लीलां की थोड़ी सी जानकारी कराने की इच्छा होते हुए भी उस इच्छा को पूर्ण करना। हरे लिए संभव नहीं ।

{{gap}शैवशास्त्र-साहित्य की उत्पत्ति का श्रीगणेश, इसका प्रचार तथा विकास पहले मौखिक और तदनन्तर लिखित रूप में किन दिव्य पुरुषों के हाथों और कैसे हुआ, इसका सुन्दर दिग्दर्शन उत्पल देव जी के गुरुदेव आचर्यं सोमानन्द जी ने अपने सुप्रसिद्ध तथा महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘शिवदृष्टि’ के अन्त में दिया है । उसकी जरा सी फांकी पाठकों के अवलोकनाथं यहां प्रस्तुत की जाती है । शैव-शास्त्र-सागर के रलों के पारखियों के लिए उन रलों के उद्गमस्थान तथा मूल स्रोत के विषय में थोड़ी सी जानकारी अवश्य रोचक तथा लाभदायक होगी, इस विचार से ऐसा किया जाता है।

{{gap}चिरकाल तक शैवशास्त्र के रहस्यपूर्ण सिद्धान्त ऋषियों के मुख कुहरों में ही छिपे रहे । कलियुग के आने पर वे ऋषि कलापि नामक ग्राम आदि दुर्गम स्थानों में जा बैठे। इस प्रकार शेवदर्शन का प्रचार लुप्त होने