पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/२३९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

मोह- = अज्ञानरूपी अन्धकार = अन्धकार से (अर्थात् अन्ध- = ददृष्टि- हीन ) बने हुये जीवलोक- = प्राणि-जगत् ( अर्थात् इस संसार के लोगों ) को एक- जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् - ( ज्ञान - प्रकाश देने के लिये ) जय जय = अद्वितीय = दीपक = ( परमार्थ- प्रकाशक ) दीपक, ( जगद्गुरु ) ! मोहान्धकारेण——अख्यातितिमिरेण जीवलोकस्तस्यैकः– अद्वितीयो दीप: - परमार्थप्रकाशकः । सुप्तायां - मायाप्रस्वापजडीकृतायां जगत्यां विश्वत्र जागरूकः प्रबुद्धोऽत एव अधिपूरुष:- अधिष्ठातृस्वरूपः ॥ १८ ॥ - = - देह- शरीर रूपी अद्रि- = पर्वत के कुञ्ज- = कुञ्ज अर्थात् गुफा के बोलने वाले जीवों के अन्तर्- = बीच में से निकूजत्- जीव- जीवक = जीवनदाता अर्थात् जीवा- त्मा रूपी मधुर कूजन करने वाले चकोर ! जय = आपकी जय हो । प्रसुप्त = ( माया के प्रभाव से अज्ञान की ) गहरी नींद में पड़े जगती = इस संसार में जागरूक- ( सदा ) जागने वाले (अर्थात् सदा - २२५ प्रबुद्ध ), अधिपूरुष = अधिष्ठातृ स्वरूप महा- जागरूक, पुरुष ! जय = श्राप की जय हो ॥ १८ ॥ अन्धः - उपसंहृता भेददृष्टियों देहाद्रिकुञ्जान्तर्निकूजञ्जीवजीवक । सन्मानसव्योमविलासिवरसारस ॥ १९ ॥ प्रकर्षेण - नित्य-

  • जीव-जीवक = १ जीवों को जीवन देने वाला जीवात्मा ।

२ चकोर नाम का पक्षी । + वरसारस = उत्तम हंस अर्थात् राजहंस | जय = आपकी जय हो । सत् = सत्पुरुषों अर्थात् भक्तों के मानसव्योम = चित्तरूपी आकाश में विलासि = आनन्द - पूर्वक विहार करने वाले +वर = सर्वश्रेष्ठ = सारस = ( परमात्मा रूपी) राजहंस ! जय = आपकी जय हो ॥ १९ ॥