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पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/२३७

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जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् अनुकम्पा = दया - आदि- = आदि गुण = गुणों की अनपेक्ष = अपेक्षा न करने वाली ( अर्थात् गुणों पर आश्रित न होने वाली ) सहज = ( और इसीलिए ) स्वाभाविक उन्नते = महिमा है जिस को, ऐसे ( महाप्रभु ) ! अनुकम्पादिगुणानपेक्षा सहजा - स्वाभाविकी अविच्छिन्ना उन्नति :- माहात्म्यं यस्य | अन्येषां तु - विश्व- = जगत् के क्षय = नाश का २२३ जय = आप की जय हो । भीष्म- = ● भयंकर ( अर्थात् समूचे जगत् को भयभीत कराने वाले ) महामृत्यु- = महाकाल का भी घटन- = संहार करने के लिए अपूर्व-भैरव =अलौकिक भैरव, (अर्थात डरावने यमराज के लिए भी डरावने मृत्युञ्जय ) ! जय = आप की जय हो ॥ १५ ॥ ‘यो हि यस्माद्गुणोत्कृष्टः स तस्मादूर्ध्वमुच्यते ।' मा॰ वि॰ तं०, श्र० २, श्लो० ६० ॥ इत्याम्नायस्थित्या अपूर्वेन्नतिः । भीष्मस्य - सकलजगत्कम्पकारिणो महामृत्योः घटने–स्वरूपचलनात्मनि प्रसने अपूर्वोऽपि भैरव:- भीषणीयस्यापि भीषणीयः, भीरूणामयम् - इति तद्धितेन मृत्युभोतानां हृदि स्फुरन्नभयप्रदश्च ।। १५ ।। - जय विश्वक्षयोचण्ड क्रिया निष्परिपन्थिक । जय उच्चण्ड = भयंकर क्रिया- = कार्य करने में श्रेयः शतगुणानुगनामानुकीर्तन ॥ १६ ॥ - जय = आपकी जय हो । श्रेयः - शत-गुण- = सैकड़ों कल्याण- कारक उत्तम गुण अनुग- = जिसके पीछे-पीछे चलते हैं, निष्परिपन्थिक= निष्कंटक (विश्वहर्ता) | नाम = ऐसा जिस के नाम का

  • भावार्थ - हे कालभक्ष ! महाकाल भी आप से डरता है, क्योंकि आप

उसका भी नाश करते हैं। आपके भक्तों को आपसे अभयदान मिलता है, अतः उन्हें मृत्यु का डर नहीं हो सकता ॥ १५ ॥