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पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/७८

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'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

खस्य द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्याख्यातें ॥२॥

उसका द्रव्य होना और नित्य होना वायु से व्याख्यातहै।

व्या-मन का आत्मा के साथ और इन्द्रियों के साथ संयोग होता है, अतएव संयोग गुण वाला होने से मन द्रव्य सिद्धहोता है, और किसी के आश्रित न होने से नित्य सिद्ध होता है।

स-मन क्या प्रति शरीर एक है वा अनेक हैं, इस का उत्तर देते हैं ।

प्रयतायैौ गपद्याज्ज्ञाना यौगपद्याचैकम् ॥३॥

प्रयत्रों के इकट्टा न होने से और ज्ञानों के इकठ्ठा न होने से एक है ।

व्या-यह अनुभव सिद्ध है, कि एक काल में शारीर में एक ही प्रयत्र होता है, यदि मन अनेक होते, तो जिस काल में मन के संयोग सें एक अङ्ग में एक प्रयत्र होता, उसी समय दूसरे मन के संयोग से अंगान्तर में दूसरा विरुद्ध मयत्र हो जाता । इस से सिद्ध है, कि एक शरीर में एक ही मन है। इसी प्रकार अनेक ज्ञानों का युगपत् न होना भी मन की एकता का - सं-अव मन की सिद्धि का आत्मा की सिद्धि में फल दिख लाते हुए आत्मसाधक और भी लिङ्ग कहते हैं

प्राणापान निमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरं विकाराः सुखदुःखेच्छाद्वेष प्रयत्राश्चात्मनोलिंगानि४

प्राण, अपान, मींचना, खोलना, जीवन, मन की गति , "