६४ वैशेषिक दर्शन ।
विभाग के स्थान से परे शब्द होना ही नहीं चाहिये, क्योंकि अभिव्यक्ति वहां ही होती है, जहां अभिव्यक्षक होता है।
लिंगा चा नित्यः शब्दः ॥ ३२ ॥
लिङ्ग से अनित्य है शब्द ।
व्या-सो जव उत्पत्ति सिद्ध है. तो इसी लिङ्ग से शब्द अनित्य सिद्ध है।
सैगति-इस कहता है।
पर िनत्यत्ववादी
द्वयोस्तु प्रवृत्योर भावात् ॥ ३३ ॥
दोनों की प्रवृत्ति के अभाव से ।
व्या-गुरु शिष्यों को जोमन्त्र पढ़ाता है (देता है) शिष्य उस को ग्रहण करते हैं। यह शब्द का दान और भतिग्रह तभी वन सकता है, याद शब्द उतनी देर तक स्थिर रहे । अन्यथा देना लना वन नहीं सकता, और जव उतनी देर तक स्थिर बना रहा, तो 'तावत्कालं स्थिरं चैनं कः पश्चान्नाशयिष्यति' उतनी दर स्थिर रहे शब्द को पीछे कौन नाश करेगा । इस युक्ति से शब्द की नित्यता ही सिद्ध होती है।
प्रथमाशब्दत् ॥३४ ॥
मथमा शब्द से (भी नित्य है)
व्या-ऋग्वद मण्डल ३ सूक्त २७ की १-११ ऋचाएँ सामिधेनी कहलाती हैं, क्योंकि इन से आग्र प्रदीप्त किया जाता . हैं। इन के विषय में कहा है-' तासांत्रिः प्रथमामंन्वाहत्रिरु त्तमाम्’ इन में से पहली ऋचा को तीन वार उचारे, और तीन, वार ही अन्तली ऋचा, को (ऐत० ब्रा० ३ । ३ ) । अब याद