पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/५६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
५४
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेोपिक दर्शन ।

व्या-पूर्वं कालं में उत्तर कंाल में एकं कांठ में' इत्यादि सर्वत्र काल व्यहार की ऑवेिशप भतीति से अखण्ड काल एक ही है। क्षणे भहूर्त धड़ी पहर दिन रांत सप्ताह मसि वर्ष पुंग ये संव व्यवहार उँस में उपाधिभेद से होते हैं ।

नित्येष्वभावादनित्येषु भावांत्कारणे काला ख्येति

नित्यों में न होने स और अनित्यों में होने से कारण में

काल संज्ञा है ।

व्या-दिन को उत्पन्न हुआ है, रात को उत्पन्न हुआ है, पुराना है, नया है, इत्यादि प्रतीतिर्ये यतः नित्यॉ (परमाणुओं आकांशादि) के विषय में नहीं होतीं, किन्तु अनित्यों (उत्पत्ति चालों ) के विषय में ही होती हैं, इस मे स्पष्ट है, किं कालं उत्पत्ति वाले संारे काय का निमित्त कारंणहै।

संगति-अष क्रम प्राप्त दिशा का प्रकरण आरम्भ करते हैं ।

इतइदमितियतस्तद्दिश्यं लिंगम् १०

  • यहां से यह ? यह (मंतीति) जिस में है, वह दिशा

का लिङ्ग हैं ।

व्या-यहां से यह दृर है, यह निकट है, ऐसी प्रतीति जिस से होती है, वह दिशा का लिङ्ग है।

  • यहां से देहली निकट है, प्रयाग दूर है' का अभिमाय

यह है, कि यहां से देहली तक जितने देश का सम्बन्ध है, उस से अधिक देश का सम्बन्ध प्रयाग तकं है । यह अखण्ड देशा ही दिशा है ।