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अ. १ आ. १ सू. ८

अ'४'१ आ०'१ सू० १४ ॥

उभयथाएंणाः ॥१३॥

अर्थ-दोनों प्रकार से गुण (हैं) ।

या०-गुण ऐसे भी हैं, जो अपने कारणु के नाशक होते हैं, जैसे शब्द पहले संयोग वा विभाग से उत्पन्न होता है, फिर आगे शब्द मे शब्द उत्पन्न होता चला जाता है, और हर एक अगला २ शाब्द पहले २ शब्द (अपने कारण शब्द) का नाशक होता है। और जो अन्त्य शब्द है, उस का नाशक उपान्त्य '(अन्तले से पहला) शब्द । अर्थात् शब्दोत्पत्ति की परम्परा हैं

में जो अन्तिम शब्द है, जिससे आगे शब्द वन्द हो जाता है, उसका नाशक और तो शब्द कोई होना नहीं, इसलिए उससे 'पंहला शब्द ही उसका नाशक हैं ।

कार्यविरोधि कर्म ॥१४॥

अर्थ-'कार्य विरोधि यस्य तत् कार्य विरोधि' कार्य जिसका नाशक है, ऐसा कर्म है ।

व्या०-स्थिर वस्तु जहां है, कर्म होते ही उससे आगे चली जाती है, पहलेस्थान से उसां विभाग और अगले से संयोग हो जाताहै.इसी को उत्तरदेशसंयोग कहते हैं,इसके होते ही कर्मनाशा हो जाता है। इस भकार हरएंक कर्म का कार्य उत्तरदेश संयोग

कारण गुण-अपने कार्य गुण का नाशक होता है, इसका स्पष्टीकरण रत्रकारने तो कही नही किया । व्याख्याकारो ने ‘उपा न्य शव्द अन्त्य का नाशक होता है’ यही एक उदाहरण माना है। - तदनुसार लिख दियां है । ।