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पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/१५९

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अ. १ आ. १ सू. ८

इति । सव प्रकार के स्पर्शी त्वचा से जाने जाते हैं (५) संख्या = गिनती (६) परिमाण-८माप. दीर्घत्व महत्व आदि (७) पृथक्क =पृथक् पन (८) संयोग-मेल (२) विभाग ( १०, ११) परत्व, अपरत्व-दूरी निकटता, वा बड़ाई छुटाई (१२) गुरुत्व =भार(१३) द्रवत्व=वहने का धर्म(१४) स्नेह-विखरे हुए कणों कोमिलाने काहेतुगुण(१५)शब्द वर्णरूप वा ध्वनिरूप,सब प्रकार के शाब्द वर्ण से जाने जाते , हैं (१६, २१) बुद्धि-ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष प्रयत्र=काम में लगने की शक्ति (२२,२३) धर्म-पुण्य के संस्कार, अधर्म=पाप के संस्कार जो आत्मा पर पड़ते हैं (२४) संस्कार, कर्म का जनक वेग, स्मृति का जनक भावना, और पूर्वेळी अवस्था में लाने वाला स्थिाति स्थापक ।

रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन चार गुणों में से पृथिवी में चारों हैं, जल में गन्ध नहीं, शेष तीनों हैं, तेज में रस भी नहीं, शेष दो हैं, वायु में रूप भी नहीं, केवल स्पर्श है ।

संख्या, परिमाण, पृथक्तत्व, संयोग, विभाग ये पांच गुण द्रव्यमात्र के धर्ग हैं ।

परत्व, अपरत्व=आयु में बड़ा वा छोटा होना, ये दो उन के धर्म हैं, जो काल की सीमा में है, अर्थात उत्पत्ति नाना वाले हैं जो नित्य हैं, उन के ये धर्म नहीं हैं। और दूर निकट होना, ये उनके धर्म हैं, जो दिशा की सीमा में हैं, अर्थात् पृथिवी, जल तेज, वायु और मन के. विभु के ये धर्म नहीं होते।

गुरुत्व, भार, इरएक तैौल चाली वस्तु का धर्म है । द्रवत्व =बहना, यह धर्म जल का तो स्वतः सिद्ध है, पर लॉह आदि