पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/१३५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
१३३
अ. १ आ. १ सू. ८

ज्ञाननिर्देशे ज्ञाननिष्पत्ति विधिरुक्तः । ३॥

जहां ज्ञान बतलाया है (तृतीत अध्याय में ! वहां ज्ञानं की उत्पत्ति का प्रकार कह दिया है । देखों १ । १ । १८ ौर ३॥२॥१)अब विशेष रूप से उसकी उत्पत्रि देखाते हैं।

गुणकर्मसु सन्निकृष्टेषु ज्ञाननिष्पते द्रव्यं कार णम् ॥ ४ ॥

(इद्रियों से ) सम्बन्ध वाळे गुण और कर्प में ज्ञान की उत्पचि का कारण द्रव्य होता है ( अर्थात इन्द्रियों का सीधा सम्बन्ध इब्ष से होता है, द्रव्य में गुण कर्म रहते हैं, इस से गुण ौर की से सम्बन्ध होता है । जैसे नेत्र का घोड़े से संबोग सम्बन्ध है, उस के लाल रङ्ग से और उस की चाल से घोड़े के द्वारा संयुक्त समवाय सम्बन्ध है। नेत्र से संयुक्त, घोड़ा हुआ है, उस घोड़े में उस का रङ्ग और चाल समवेत हैं । सोसैयोग सम्बन्ध से घोड़े का और संयुक्त सयवाय सम्बन्ध से घोड़े के रङ्ग और गति का प्रत्यक्ष हुआ है)

स-अख धर्म ज्ञान और धर्मि ज्ञान की उत्पत्ति का प्रकार बत

सामान्यविशेषु सामान्यविशेषा भावात्, तत

सामान्य विशषों में सामान्य विशैवों का अभाव होने से उसी से ज्ञान होता है।

व्या-धर्म धर्मि के ज्ञान में धार्मि का ज्ञान तो अपने धर्म के आश्रय होता है; विना धर्मज्ञान के धर्म का ज्ञान नहीं होता।