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अ. १ आ. १ सू. ८

"गुणैर्गुणाः ॥ २५ ॥ ' ',

संस-सूची कटाहन्याय सेबुद्धि से पूर्व ही समत्रायाकी परीक्षा करते हैं।

इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः.स-समवायः २६॥

कार्य और कारण में: 'इसमें यहहै; यह-प्रतीति जिस मृम्वन्धु-से होती है, वह-समवाय है ।

व्या-तन्तुओं में वस्त्र है ' वा 'तन्तुओं के आश्रय वस्त्र है’ ऐसीत्मतीति विना.सम्वन्य केनहीं हो सकती, और संयोग सम्बन्ध यहां बननहीं सकता, क्योंकि संयोग उन का होता है, जो पहले अलग हुए २.फिरजुड़े, स्त्रतन्तुओं से अलग कभी था ही नहीं। सो इस भतीति का नियामक कोई अन्य सम्बन्ध मानना यहां कार्य कारण उदाहरण मात्र हैं।, अभिप्राय उन सव से हैं, जो अयुत सिद्ध हैं, अर्थात जिनमें से एक सदा दूसरे सो इस प्रकारगुण गुणीकाकर्म कम का, जाति व्यक्ति का, अवयव अवयवी का सम्बन्ध समवाय है।

स्वरूप ही फूयों न मान लिया जाय ? इस आशंका को मिटाते है

। .द्वन्यत्वगुणत्व प्रतिषेधो भावेन व्याख्यातः ॥२७

द्रव्यत्व गुणत्व का प्रतिषेध सत्ता से व्याख्यात है।