और वरली में * अपरत्व' धर्म है। ये परत्व और अपरत्व-उन में दैशिक हैं, क्योंकि एक दिशा की अपेक्षा से उनं ‘में भतीत होते हैं । इसी प्रकार काल की अपेक्षा से जो एक को बड़ा ( परला.) और दूसरे को छोटा (वरला ) कहते है, ये परत्व अपरत्व काल की दृष्टि से हैं, अतएव कालिक कहलाते हैं)
कारणपरत्वात् कारणापरत्वा ॥ २२ ॥
कारण के परे होने से और कारण के बरे होने से (पर अपर होते है । दैशिक परत्व अपंरत्व में जिस का देश परे तक जाता है; इस में पर,' और जिस का वरे रंडता है, उसमें ‘अपर’ व्यवहार होता है। जैसे प्रयागस्थों को कलकत्ताकाशी 'से परे है. काशी कलकत्ते से वरे है, इसलिए काशी की अपेक्षा से कलकत्ते में पर और कलकत्ते की अपेक्षा से काशी में अपर व्यवहार होगा । निरपेक्ष नहीं । इसी प्रकार जिस का जन्म काल परे तक जाता है, इस में पर, और जिस का वरे रहता ) है, उस में अपर व्यवहार सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं।
सं-पर भी किसी की अपेक्षा अपर’ और अपर भी किसी-की }अपरत्व में परत्व अपरत्व की आशंना कोअणुत्व महत्वकी व्या हयान रीति से मिटाते है
'.पस्त्वापरत्वयोः परत्वापरत्वाभावो ऽणुत्व:मह त्वाभ्यां व्याख्यातः ॥ २३ ॥ .. " :