पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/१२८

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'वैशेषिक-दर्शन ।

और नित्यं एक पृथक्त्व नित्य द्रव्यों में रहते हैं) सै-सयोग विभाग की परीक्षा आरम्भ करते हैं

अन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजश्च संयोगः ॥ ९ ॥

दोनों में से एकक कर्म से जन्य ( जैमे पक्षी के कर्म से पक्षी वृक्ष का संयोग ) दोनो के कर्म से जन्य(जैसेस मेंढों का ) और संयोग से जन्य (जैसे हस्त पुस्तक के संयोग से शरीर पुस्तक का संयोग) (यह तीन प्रकार का ) संयोग होता है।

एतेनविभागोव्याख्यातः ॥ १० ॥

इस से विभाग व्याख्या किया गया ( विभाग भी तीन प्रकार का है, एक कर्म से जन्य, जैसे पक्षी के उड़ जाने से पक्षी और वृक्ष का विभाग, दूसरा दोनों के कर्म से जन्य, जैभे मेंढों का टक्कर मार कर पीछे हटने से, तीसरा विभाग से जन्य, जैसे हस्त पुस्तक के विभाग से शरीर पुस्तक का विभाग ) ।

संयोगविभागयोः संयोगविभागाभावोऽणुत्व महत्त्वाभ्या व्याख्यातः ॥ ११ ॥

संयोग और विभाग में संयोग और विभाग का अभाव अणुत्व और महत्त्व से व्याख्या किया गया ( जैरे अणुत्व और महत्त्व में अणुत्व और महत्व नहीं होता, वैसे संयोग और विभाग में संयोग और विभाग नहीं रहता । इस लिए संयुक्त

  • द्वित्वादि का विचार न करने से मुनि का यह अभिप्राय हो

सकता है, कि एकत्व और एक पृथक्क ही गुण हैं, द्वित्व और द्विपृथक्कादि व्यवहार मात्र के साधक बुद्धि धर्म है ।