वैशेषिक दर्शन ।
किहा है उस) पृथिवी कर्म से तेज का कर्म और वायु का कर्म व्याख्या किया गया है।
अमेरूर्धज्वलनं वायोस्तिर्यक् पंचनमणूनां मन सश्चाद्य कमॉ दृष्टकारितम् ॥ १३ ॥
अगि का ऊपर जलना ( आग्रेि की अदृष्ट शक्ति से) वायु का तिरछा चलना (वायु की अदृष्ट शक्ति से) तथा पंरमाणुओं का और मन का (लय के अनन्तर सब से) पहला कर्म(परं मात्मा की अदृष्ट ( शक्ति ) से 'कराया जाता है ।
हस्तकर्मणा मनसः कर्म व्याख्यातम् ॥१४॥
हाथ के कर्म से मन का कर्म व्याख्यां किया गया (जैसे पुरुष प्रयत्र से हाथ को प्ररता है, ऐसे ही-अव उन २ अभिमत विपर्यो में मन को भी प्रेरता है)
संस-अप्रत्यक्ष मन की सिद्धि पूर्व अनुमान से कही. है, पर-उस के कर्म की सिद्धि किस से अनुमान करनी चाहिये, इससं का उत्तर देते हैं
आत्मन्द्रियमनोर्थसन्निकर्षात् सुखदुःखे ॥१५॥
आत्मा इन्द्रिय मन और अर्थ के सम्वन्ध से सुख दुख होते हैं। मित्र को देख कर मुख, वैरी को देख कर दुःख होता है। ऐसा दर्शन नेत्र और मन के सम्बन्ध तया मन और आत्मा के सम्बन्ध के विना नहीं हो सकता, और अणु मन का इन्द्रियों से सम्बन्ध, विना कर्म के नहीं हो सकता, इस से मन के कर्म का अनुमान होता है।
तदनारम्भ आत्मस्थे मनासिशरीरस्य दुःखाभावः