पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

अष्टमोऽध्यायः आश्रमांश्चतुरो हृतान्पूर्वमास्थापयन्प्रभुः । वर्णकर्माणि ये केचित्तेषामिह न कुर्युते ।१७७ कुतः कर्माश्वितिं प्राहुराश्रमस्थानघसिनः । ब्रह्म तान्स्थापयामास आश्रमान्नाम नामतः ।।१७८ निर्देशार्थं ततस्तेषां ब्रह्म धर्मानभाषत । प्रस्थानानि च तेषां वै यमश्च नियमांश्च ह ।१७८ चातुर्वण्र्यात्मकः पूर्वं गृहस्थश्चाऽऽश्रमः स्मृतः । त्रयाणामाश्रमाणां च प्रतिष्ठा योनिरेव च । यथाक्रमं प्रवक्ष्यामि यमैश्च नियमैश्व ते । दशनऽयोथाऽऽतिथेय इज्याश्राद्धक्रियाः प्रजा ॥ इत्येष वै हस्थस्य समासाद्धर्मसंग्रहः। दण्डी च मेखती चैव ह्यधःशायी तथा जटी ।१८२ गुरुशुश्रूषणं भैक्ष्यं विद्यार्थी जलचारिणः। चीरपत्राजिनानि स्युर्धान्यमूलफलौषधम् ।१८३ उभे संध्ये वगाहश्च होमश्चारण्यवासिनाम् । आसन्नमुसले भैक्षमस्तेयं शौचमेव च ।१८४ अप्रमादोऽव्यवायश्च दया भूतेषु च क्षमा । अक्रोधो गुरुशुश्रूषा सत्यं च दशमं स्मृतम् ॥१०५ दशलक्षणको दोष धर्मः प्रोक्तः स्वयंभुवा ।भिक्षोर्दूतानि पञ्चधा पञ्चैवोपव्रतानि च ॥१८६ आचारशुद्धिर्विनयः शौचं चाप्रतिकर्म च । सम्यग्दर्शनमित्येवं पश्चैवोपव्रतान्यपि १८७ ध्यानं समाधिर्मनसेन्द्रियाणां ससागभैक्ष्यमथोपगम्य । मौनं पवित्रोपचितैर्विमुक्तिः परिव्रजो धर्ममिमं वदन्ति ॥१८८ . किया। उन आश्रमवासी प्रजाओं में कुछ वर्णघर्म को नहीं करते थे और कहने लगे कि पृथ्वीतल में हमारा कर्तव्य कर्म क्या है, क्या करें । तब ब्रह्मा ने उन्हें कर्मनिष्ठ करने के लिये चार आश्रमों का विधान किया । प्रभ ब्रह्मा ने तब प्रजावर्ग को शिक्षा देने के लिये धर्म, आचार और यम-नियमादि का उपदेश दिया ।१७६-१७॥ चारों आश्रमों के मध्य गृहस्थाश्रम ही अन्य आश्रमों की उत्पत्ति और स्थिति का कारण है, अतः गृहस्थाश्रम चारों आश्रमों का मूल है। अब हम यथाक्रम से यम-नियम के साथ आश्रम चतुष्टय का विधान करते हैं । स्त्रीपरिग्रहं अग्निहोत्रानुष्ठान, अतिथिसत्कारयज्ञश्रद्धादि कार्य ओर सन्तानोत्पादन यही संक्षेप में रहस्यों के कर्तव्य-धर्म है । दण्ड मेखला जटाधारण, भूतल शयन, गुरुशुश्रूषा और भिक्षा यह विद्यार्थी एवं अह्मचारियों के लिये पालनीय धर्म है । वीरपत्र और अजिन धारण धान्य मूल और फल भक्षण; दोनों सन्ध्या काल में डुबकी लगाकर स्नान तथा होमनुष्ठान ग्रह वानप्रस्थवालों का करणीय घर्म है । जिस समय मुसल का शब्द नहीं सुना जाता हो, उस समय भिक्षा करना, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, सावधानता, सम्भोग से पराङ्मुख होना, प्राणियों के प्रति दया, क्षमा, अफघ, गुरुशुश्रूषा और इस तरह इस दस लक्षण घमं को स्वयम्भू ने संन्यासियों के लिये कहा है। इनमें ऊपर वाले पाँच भिक्षुकों के लिये मुख्य हैं। ओर नीचे पाँच गौण । इनके अतिरिक्त सदाचारविनय, शुद्धता, विलासहीनता और सम्यग्विवेचन ये पाँच उपव्रत कहे गये हैं। ध्यान, इंद्रियमन का संयम, सर्वत्र जाकर बिना कटु वचन कहे भिक्षा ग्रहण शरीर या इंद्रिय को सुख पहुँचाने वाले उपचारों का निरादरु संन्यासियों के लिये धर्म कहा गया है ।१८०-१८८॥