पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८७

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६८ वायुपुराणम् चश्यन्येव तु तानाहुः कीनाशान्वृतिसाधकान् । शोचत द्रवतश्च परिवर्यासु ये रताः १६५ निस्तेजसोऽल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानब्रवीत्तु सः। तेषां कर्माणि धर्माश्च ब्रह्म तु व्यदधरप्रभुः ।। स्थितौ प्राकृतायां तु चतुर्युर्यस्य सर्वेशा । पुनः प्रजास्तु ता मोहातान्धर्मान्तानपालयन् ।। वर्णधर्मीरजीवन्त्यो व्यरुध्यन्त परस्परम् । ब्रह्म तभथं बुद्ध्वा तु याथातथ्येन वै प्रभुः ।।१६८ क्षत्रियाणां बलं दण्डं युद्धमाजीवमादिशत् । याजनाध्यापनं चैव तृतीयं च प्रतिग्रहम् ॥१६६ ब्राह्मणानां विभुस्तेषां कर्माण्येतान्यथाssfदशत् । पाशुपाल्यं वाणिज्यं कृषिं चैव विशां ददौ ।। शिल्पाजीवं भृतिं चैव शत्राणां व्यदधात्प्रभुः । सामान्यानि तु कर्माणि ब्रह्मक्षत्रविशां पुनः १७१ यजनाध्ययनं दानं सामान्यानि तु तेषु च । कर्माजीवं ततो दत्वा तेभ्यश्चैव परस्परम् ।।१७२ लोकान्तरेषु स्थानानि तेषां सिद्धयाऽददात्प्रभुः । प्राजापत्यं ब्राह्मणानां स्मृतं स्थानं क्रियावताम् ॥।१७३ स्थानमैन्द्रं क्षत्रियाणां सङ्ग्रामेष्वपलायिनाम् । वैश्यानां मारुतं स्थानं स्वधर्ममुपजीविनाम् ॥ गान्धर्वं भद्रजातीनां प्रतिचारेण तिष्ठताम् । स्थानान्येतानि वर्णानां व्यत्याचारवतां स्वयम् । ततः स्थितेषु वर्णेषु स्थापयामास चाऽऽश्रमान् । युहस्थो ब्रह्मचारित्वं वानप्रस्थं सभिक्षुकम् ॥ का नाश करते थे उन्हे कीनाश पद से अभिहितकर वैश्य कहा और उन्हे सर्व साधारण के वृत्ति साधन कार्य में लगाया । जो सोचते हुए शोक करते हुए इधर उधर भ्रमण करते थे और निस्तेज थे, उन्हे शूद्र कहा और उन्हे परिचर्या-कार्य मे लगाया । इस तरह ब्रह्मा ने उनके घर्म-कर्म का प्रणयन किया और वे चतुर्वणं अपने - अपने कर्तव्यो का पालन करने लगे । फिर वे क्रम क्रम से मोहवश होकर उन सफल वर्णधर्म नियमो का अनादर कर परस्पर विरुद्धचरण में प्रवृत्त हुए । प्रभु ब्रह्मा ने यथार्थतः उनके आचरणों को जानकर क्षत्रियो को वल, शासन और युद्ध जीविकोपाय बताया, ब्राह्मणों को याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह रूप तीन कर्म वतलायेपशुपालन, वाणिज्य और कृषिकर्म रूप जीविकोपाय वैश्यों को दिया, एवं शूद्रों के लिये शिल्प तथा दासत्व की व्यवस्था की । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये यजन, अध्ययन एवं दान की सामान्य रूप से व्यवस्था की । ब्रह्मा ने उन्हे परस्पर कम और जीविका देकर उनकी सिद्धि के अनुरूप लोकान्तर मे भी स्थानों का निर्देश कर दिया । क्रियाशील ब्राह्मणों के लिये प्राजापत्यस्थान संग्राम मे डटे रहने वाले क्षत्रियों के लिये ऐन्द्रस्थान, स्वधर्मनिष्ठ वेश्यों के लिये मारुत नामक स्थान ओर अपने आचरण में निरत शूद्रो के लिये गान्धर्व स्थान का निरूपण किया । स्वधर्मनिष्ठ वर्णचतुष्टयों के लिये उन्होने इन स्थानो का विधान किया । इस तरह वर्णधर्म के प्रतिष्ठित हो जाने पर उन्होने आश्रमों का स्थापन किया ।१६४१७५३ ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक नामक चार आश्रमों को 'ब्रह्मा ने पहले स्थापित