पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१

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५२ वायुपुराणंगें आदित्यचणं गोप्ता एको ह्यपूर्वः प्रथमं तुराषाट् । भुवनस्य हिरण्यगर्भः पुरुषो महात्म स पठ्यते वै तमसः परस्तात् ६७ कल्पादौ रजसोद्रिको ब्रह्म भूत्वऽखजप्रजाः । कल्पान्ते तमसोद्भकः कालो भूत्वाऽग्रसत्पुनः स वै नारायणाख्यस्तु सर्वोद्रिक्तोऽर्णवे स्वपन् । त्रिधा विभज्य चाऽऽमानं त्रैलोक्ये समवर्तत सृजते ग्रसते चैव वीक्षते च त्रिभिस्तु तान् । एकार्णवे तदा लोके नष्टे स्थावरजङ्गमे II७० चतुर्युगसहस्रान्ते सर्चतः सलिलावृते । ब्रह्म नारायणख्यस्तु अप्रकाशाएँचे स्वपन् ।I७१ चतुर्विधाः प्रजा ग्रस्त्वा ब्राह्मयां रात्र्यां महार्णवे। पश्यन्ति तं महर्लोकसुप्तं कालं महर्षयः ।। भृग्वादयो कल्पे (*चिचर्तमानैस्तैर्महान्परिगतः परः ||७३ यथा सप्त ह्यस्मिन्महर्षीयः ततो गत्यर्थादपयो धातो ना(न)मनिQतिरादितः। तस्मटपिपरत्चेन महांस्तस्मान्महर्षणः) IN७४ महर्लोकस्थितैर्जुष्टः कालः सुप्तस्तदा च तैः । सत्याद्याः सप्त ये ह्यासन्कल्पेऽतीते महर्षयः ।।७५ एवं चाधीषु रात्रीषु ह्यतीतासु सहस्त्रशः । इष्टचन्ततस्था ह्यन्ये सुप्तं कालं महर्षयः ।i७६ और महापुरुष कहे जाते है ।६७ यही कल्प के आदि में रजोगुण के उद्रेक होने से ब्रह्मा होकर प्रजा की सृष्टि करते हैं और कल्पान्तर काल में तमोगुण के उद्रेक होने से कल होकर सबको निगल जाते हैं ।६८। सत्त्वगुण के उद्रेक होने से वे एकार्णव में शयन करते है - अतः नारायण नाम से प्रसिद्ध होते हैं । वे अपने को तीन भागो में विभक्त कर त्रेलोक्य में विराजमान रहते है ।६। तीन मूतियों के द्वारा वे मृप्टि और पालन किया करते है । चार हजार युग के बाद जव स्यावर जङ्गम विनष्ट हो जाते हैं दसों दिशाएँ जलमय होकर एकार्णवाकार हो जाती है, जब ब्रह्म काल रूप से चतुर्विध प्रजाओं को निगल कर प्रकाशहीन जलराशि के मध्य में नारायण रूप में सोते रहते हैं, तब उन्हे कल्प के महर्लोकवासी भृगु आदि महर्षिगण देखते हैं । उन महर्षियों ने महान् पुरुप का आश्रय प्राप्त किया है I७०-७३] गमनाथक ऋष् धातु से सर्वप्रथम ऋषि शब्द बना है उसमे भी वे महान् है. अतः महपि कहे जाते है ।७४। महर्लोक में स्थित वे समस्त ऋषिगण उस समय सोये हुए काल को देखते है। पूव कप में जो सत्य प्रभृति महषिगण थे उन्होने भी काल को इसी प्रकार सुप्त देखा था । इस प्रकार ब्रह्म की सहस्र-सहस्र रात्रि के बीत जाने पर अन्य महपियो ने भी काल को इसी प्रकार शयन करते हुए देखा है (७५-७६। यतः कल्प के आदि मे ब्रह्मा ने चौदह संस्थाओ के विभाग की कल्पना की इसलिये उस काल को कल्प कहते हैं । वही व्यक्ताव्यक्त महादेव कल्प के आदि मे सर्व-

  • धनुदिचह्न्तर्गतग्रन्थः ख. घ• पुस्तकयोर्नास्ति ।