पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७०

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सप्तमोऽॐययं: सर्वतः समनुप्राप्य तासां चाम्भो विभाव्यते । सदम्भस्तनुते यस्मात्सर्वा' पृथ्वीं समन्ततः ५६ धातुस्तनोति विस्तारे तेनाम्भस्तनवः स्मृताः। अरमित्येष शीघ्र तु निपातः कविभिः स्मृतः॥ एकार्णवे भवन्त्यापो न विप्रास्तेन ते नराः। तस्मिन्युगसहस्रान्ते संस्थिते ब्रह्मणोऽहनि ।५८ वर्तमानायां तावत्तत्सलिलात्मना । ततस्तु सलिले तस्मिन्नष्टेऽग्नौ पृथिवीतले ॥५- प्रशान्तवातेऽन्धकारे निरालोके समन्ततः । येनैवाधिष्ठितं हीदं ब्रह्म स पुरुषः प्रभुः ।।६० चिभागमस्य लोकस्ये पुनर्वै कतुमिच्छति । एकार्णवे तदा तस्मिन्नष्टे स्थावरजङ्गमे ।६१ तदा स भवति ब्रह्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् । सहस्रशीर्षा पुरुषो रुक्मचणं ह्यतीन्द्रियः ॥६२ ब्रह्मा नारायणाख्यस्तु सुष्वाप सलिले तदा। सत्त्वोद्रेकात्प्रबुद्धस्तु न्यं लोकमवेक्ष्य च ॥६३ इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति । आपो नराख्यास्तन्व इत्यपां ना।म शुश्रुम । आपूर्य नाभिं तत्राऽऽस्ते तेन नारायण स्मृतः ॥६५ सहस्रशीर्षा सुमनः सहस्रपात्सहस्रचतुर्वदनः सहस्त्रभुक् सहस्रबाहुः प्रथमः प्रजापतिस्त्रयीपथे यः पुरुषो निरुच्यते ६९ अपनी व्याप्ति एवं दीप्ति के कारण चारों ओर फैला रहता है उसको अम्भ कहते है। वह अम्भ (जल) सम्पूर्ण पृथिवी को चारों ओर विस्तृत करता है और तनु धातु विस्तार अर्थों में प्रयुक्त होता है इसलिये अम्भ को तनु भी कहा जाता है ।y५-५७३। कवियों ने ‘अर’ इसको rत्रार्थ द्योतक माना है, एकार्णव काल में जल शीघ्रगामी नही होतो इसलिये जल को ‘मर’ या नार' भी कहा जाता है । सहस्र युग काल परिणाम वाले ब्रह्मा के एक दिन की स्थिति के बाद उतने ही परिमाण वाली रात्रि के हो जाने पर ओर जल जबकि चारों केवल व्याप्त रहता है और अग्नि के नष्ट हो जाने पर पृथ्वी तल पर चारों ओर घना अन्धकार छा जाता, कहीं पर । भी आलोक नहीं दिखाई देता तब उस सेलिल में निवास करने वाले उस प्रभु पुरुष ब्रह्मा के हृदय में पुनः इस लोक को विभक्त करने की इच्छा हुई || ६-६०३। स्यावंर जङ्गमात्मक सृष्टि के नष्ट हो जाने पर जब उस समय केवल एक मात्र समुद्र ही शेष रह जाता है तब केवल इच्छां मात्र से वह ब्रह्मा सहस्राक्ष (हजार आँखों वाला) सहस्रपाद् ( हजार पर वाला ) सहस्रशीर्ष ( हजार शिर वाला ) सुवर्ण के समान वर्ण वाला और अतीन्द्रिय हो गया । उस समय ये नारायण नामक ब्रह्मा जल में ही सोते थे । ब्रह्मा के हृदय में उस समय जब सत्व गुण की वृद्धि हुई तब उनको ज्ञान-प्राप्ति हो गई. तब उन्होंने चारों ओर केवल शून्य को ही देख ।६१-६३। नारायण के सम्बन्ध में इस प्रकार का श्लोक प्रसिद्ध है कि जल का नर और तनु नाम है । उस जल में वे नभि तक मग्न होकर रहते हैं अतः उसका नाम नारायण पड़ा ६४-१ ५। इन सहस्रप्राण, मन, मुख, मस्तक, हस्त, पाद, चक्षु और करों वाले, सर्वाग्रवर्ती, प्रजापति पुरुष के विषय में वेदों में विशेष उल्लेख है ।६६यही महात्मा वेद में आदित्यवर्ण, भुवनपालक, अपूर्व, प्रथम प्रजापति इन्द्र तम से परे हिरण्यगर्भ