पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६६

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सप्तमोऽध्यायः ४७ यस्मिन्पूर्वः परार्धे तु द्वितीयः पर उच्यते । एतावान्स्थितिकालस्य प्रत्याहारस्ततः स्मृतः ॥१३ अस्मात्कल्पात्तु यः पूर्वं कल्पोऽतीतः सनातनः। चतुर्युगसहस्रान्ते अहो मन्वन्तरैः परा ॥१४ क्षीणे कल्पे तदा तस्मिन्दहकाले ह्यपस्थिते । तस्मिन्कल्पे तदा देवा आसन्वैमानिकास्तु ये ॥१५ नक्षत्रग्रहतारास्तु चन्द्रसूर्यग्रहाश्च ये । अष्टाविंशतिरेवैताः कोटयस्तु सुकृतात्मनाम् ॥१६ मन्वन्तरे तथैकस्मिश्चतुर्दशसु वै तथा । त्रीणि कोटिशतान्यासन्कोटयो द्विनवतिस्तथा ।।१७ अष्टादिकाः सप्तशताः सहस्राणां स्मृताः पुण। वैमानिकानां देवानां कल्पेऽतीते तु येऽभवन् ॥१८ एकैकस्मिस्तु कल्पे वै देवा वैमानिकाः स्मृताः । अथ मन्वन्तरेष्वासंश्चतुर्दशसु वै दिवि ॥१€ देवाश्च पितरश्चैव मुनयो मनवस्था । तेषामनुचरा ये च मनुपुत्रास्तथैव च ।२० वर्णाश्रमिभिरीडयाश्च तस्मिन्काले तु ये सुराः। मन्वन्तरेषु ये ह्यासन्देवलोके दिवौकसः ॥२१ ते तैः संयोजकैः सार्ध प्राप्ते संकालने तथा । तुल्यनिष्ठास्तु ते सर्वे प्राप्ते ह्याभूतसंलवे ।।२२ ततस्तेऽवश्यभावित्वाबुध्वा पर्यायमात्मनः । त्रैलोक्यवासिनो देवा (*इहस्थानाभिमानिनः ॥ यह कल्प वीत रहा है ।१२। जो प्रथम परार्द्ध में पूर्व है और जो द्वितीय परार्द्ध में पर कहा जाता है इतना काल परिमाण स्थितिकाल है इसके बाद का काल प्रत्याहार काल (प्रलय काल) कहा गया है अर्थात् पूर्व और पर परार्दू काल स्थितिकाल और इस द्विपरार्द्ध के बाद का प्रलय काल (प्राकृत प्रलयकालकहा जाता है १३। इस कल्प से पूर्व जो सनातन कल्प था वह वीत चुका है । वह सहस्र चतुयुर्ग के अन्त में मन्वन्तर परि मित ब्राह्म दिवस के अन्त होने पर क्षीण हो गया ।१४। उस समय कल्प के क्षीण होने पर और प्रलयकालीन-दाहकाल के आ जाने पर उस कल्प में जितने विमान-विहारी देवता, नक्षत्र, ग्रह, तारामण्डल सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह थे, वे सुकृतात्मा देव सब मिलाकर अट्ठाइस करोड़ थे ।१५-१६। यह एक मन्वन्तर के देवताओं की संख्या है । इस प्रकार चौदहों मन्वन्तरों के देवों की संख्या तीन सौ बानवे करोड़ हुई १७पहले व्यतीत (बीते हुए) कल्प मे जो वैमानिक देव थे उनकी संख्या सात सौ आठ हजार कही गई है। एक कल्प में जितने वैमानिक देव होते है स्वर्ग में उतने हो चौदह मन्वन्तरों में होते है ।१८-१९॥ उस मन्वन्तर या कल्प काल में जितने देवता, पितर, मुनि तथा मानव, उनके अनुचर, वर्णाश्रम घर्मावलम्बियों के पूज्य जितने देवता एवं मन्वन्तरों में जो देवलोक के रहने वाले देवता थे, वे अपने संयोजकों के साथ उस समय संहार काल में प्रलयकालीन लक्षणों के उपस्थित हो जाने पर समान भाव से अपने अवश्यंभावी पर्याय (स्थाननाश) को जान गये ॥२-२. अतएव वे त्रैलोक्यवासी देवता जो कि अपने स्थान महत्व पर अभिमान करने वाले थे–उस समय अपने स्थितिकाल को समाप्तप्राय और पश्चाद्भावी प्रलय के

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्यः क. पुस्तके नास्ति ।