३८ अथ षष्ठोऽध्यायः क्षष्टिप्रकरणम् सूत उवाच आपो ह्यग्ने खमभवन्नष्टेऽशौ पृथिवीतलें । सान्तरालैकलीनेऽस्मिन्नष्टे स्थावरजङ्गमे ।१ एकार्णवे तदा तस्मिन्न प्राज्ञायत किंचन । तदा स भगवान्ब्रह्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥२ सहस्रशीर्षा पुरुषो रुक्मवर्णाऽह्यतीन्द्रियः । ब्रह्म नारायणाख्यः स सुष्वाप सलिले तदा ॥३ सत्वोद्रेकात्प्रबुद्धस्तु शून्यं लोकमुदीक्ष्य सः। इमे चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति ॥४ आपो नारा वै तनच इत्यपां नाम शुश्रुम ।. अप्सु शेते च यत्तस्मात्तेन नारायणः स्मृतः ॥५ तुल्यं युगसहस्रस्य नैशं कालमुपास्य सः। शर्वर्यन्ते प्रकुरुते ब्रह्मत्वं सर्गीकारणात् ॥६ ब्रह्मा तु स्खलिले तस्मिन्विज्ञायान्तर्गतां महीम् । अनुमानादसंमूढो भूमेरुद्धरणं प्रति ।।७ अकरोत्स तनू ह्यन्यां कल्पादिषु यथा पुरा । ततो महात्मा मनसा दिव्यं रूपमचिन्तयत् ॥८ अध्याय ६ सूत बोले-पृथ्वी तल पर अग्नि के नष्ट हो जाने पर अग्नि से जल उत्पन्न हुआ । स्थावर जंगम सहित पृथ्वी जब उस जल में विलीन हो गई, तव चारों ओर केवल समुद्र दिखाई पड़ने लगा । उस प्रलय पयोधि मे कोई दूसरा पदार्थों दृष्टिगोचर नही होता था । उस समय सहस्र नेत्र, सहस्र पाद और सहस्रशीर्षरुक्म वर्ण और अतीन्द्रिय पुरुष भगवान् ब्रह्मा, जिनको नारायण कहा जाता है, उस सलिल राशि में सो गए ।१-३॥ कुछ समय बाद सतोगुण के जागरित होने पर वे जाग गये उस समय उनको चतुर्युदक् शून्य ही दिखाई पड़ता था । उस नारायण के प्रति यह श्लोक कहा जाता है कि अप्, नार तनु ये जल को संज्ञायें हैं, अतः वे जल में सोते है इसलिए वे नारायण कहे जाते हैं ।४-५ वे ही हजारयुगों के बराबर निशा काल बीत जाते पर रात्रि के अन्त में सृष्टि के लिये ब्रह्मा का रूप धारण करते है ।६। ब्रह्मा उस समय वायु का रूप धारण कर वर्षा काल के रात्रि के समय इधर उधर उड़ने वाले जुगनू की तरह इधर-उधर समुद्र तल पर घूमने लगे । ‘अनुमान से उस समुद्र में डूबी हुई पृथिवी का पता पाकर उसके उद्धार के लिये सचेष्ट हो गये । उन्होंने पूर्व कल्पों में जैसा शरीर धारण किया था वैसा ही दूसरा शरीर धारण कर लिया । पुनः वे महात्मा मन
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