प्रङचमोऽध्यायः ३७ इज्यत्व दुच्यत "यज्ञः कविर्विक्रान्तदर्शनात् । क्रमशः क्रमणीयत्वद्वर्णकस्याभिपाल नत् ॥४४ आदित्यसंशः कपिलस्त्वग्रजोsiझरिति स्मृतः। हिरण्यमस्य गर्भाऽभूद्धिरण्यस्यापि गर्भजः ।।४५ तस्माद्धिरण्यगर्भः स पुराणेऽस्मिन्निरुच्यते । स्वयंभुवो निवृत्तस्य कालो वर्षाग्रजस्तु यः ।४६ न शथः परिसंख्यातुमपि वर्षशतैरपि । कल्पसंख्यानंवृत्तस्तु पराख्यो ब्रह्मणः स्मृतः ॥४७ तावच्छेषोऽस्य कालाऽन्यस्तस्यान्त मतेमुज्यते । कोटिकोटसहस्राणि अन्तभूतानि यानि वै समतीतान कल्पानां तावच्छेषाः परस्तु ये । यस्त्वयं वर्तते कल्पो वाराहं तं निबोधत ॥४८ प्रथमः सांप्रतस्तेषां कल्पोऽयं वर्तते द्वजः। तस्मन्स्वायंभुवाद्यस्तु मनवः स्युश्चतुर्दश ॥५० अतीता वर्तमानश्च भविष्या ये च वै पुनः । तैरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा समन्ततः ॥५१ पूर्णं युगसहस्र' वै परिपाल्या नरेश्वरैः। प्रजाभिस्तपसा चैव तेषां शृणुत विस्तरम् ।।५२ मन्वन्तरेण चैकेन सर्वाण्येवान्तराणि वै । भविष्याणि भविष्यैश्च कल्पः कल्पेन चैव ह ।५३ अतीतानि च कल्पानि सोदकानि सहन्घयेः । अनागतेषु तद्वच्च तर्कः कार्यो विजानता ॥५४ श्रीवायुमहापुराण का प्रकृतिवर्णन नाम का पाँचवा अध्याय समाप्त ।।५।। होने से यज्ञ तथा शान्तिदर्शी होने के कारण कवि कहता है । क्रमणीय अर्थात् सबका गन्तव्य होने से क्रमण तथा वर्गों की रक्षा करने से आदित्य और कपिल कहलाता है । आगे उत्पन्न होने के कारण यह अग्नि कहा जाता है । हिरण्य इसका गर्भ तथा यह हिरण्य के गर्भ से उत्पन्न हुआ अतएव इसे पुराण में हिरण्यगर्भ कहते हैं । व्यतीत स्वयम्भू के वर्ष आदि काल सैकड़ों वर्षों में भी नही गिनाये जा सकते । कल्प युक्त संख्या से ब्रह्मा का काल पर कहलाता है ।४४-४७ उतना ही (जितना बीत चुका है) उसका काल अभी शेष है । उसके अन्त में प्रलय होता है। कोटि सहस्र कल्प जो बत गये उतने ही पर अभी शेष है । इस समय काल जो वर्तमान वाराह कल्प है उसे सुनिये । ब्राह्मणों, उनमें से पहला यह साम्प्रत कल्प है । इसमें स्वांयभुव आदि चौदह मनु हैं ।४८५०उनमें व्यतीत वर्तमान, तथा भविष्य जो है वे ही नरेश भली भाँति इस सातों द्वीपों वाली पृथिवी का पूरे चार सहस्र युग तक तप तथा प्रजोत्पत्ति से पालन करते हैं 1५१-५२॥ उनका विस्तार आप लोग सुनिये । ज्ञानी पुरुष को एक हो मन्वन्तर से सभी मन्वन्तरों का, एवं भविष्य से भविष्यों का करुप से कहपों का, एवं वंश और के साथ अतीत कल्प जैसे है वैसे ही भविष्य भी तथा देवों में होगे ऐसा तर्क कर लेना चाहिये ५३-५४।। श्रीवायुमहापुराण का प्रकृतिवर्णेन नाम का पाचवां अध्याय समाप्त ५॥
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