पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४९०

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अष्टपञ्चाशोऽध्यायः ४६६ ॥८८ विनिघ्नन्सर्वभूतानि मनवानि सहस्रशः । कृत्वा वीर्यावशेष तु पृथ्वीं रूढेन कर्मणा । परस्परनिमित्तेन कोपेनाऽऽकस्मिकेन तु ८७ स साधयित्वा वृषलान्प्रायशस्तानधामिकान् । गङ्गायमुनयोर्मध्ये निष्ठां प्राप्तः सहानुगः ततो व्यतीते तस्मिस्तु अमात्ये सत्यसैनिके । उत्साद्य पार्थिवान्सर्वान्म्लेच्छांश्चैव सहस्रशः। ॥८ तत्र संध्यांशके काले संप्राप्ते तु युगान्तिके । स्थितास्वल्पावशिष्टसु प्रजास्विह क्वचित्क्वचित् ॥६० अप्रग्रहास्ततस्ता वै लोकचेष्टास्तु वृन्दशः । उपहसन्ति चान्योन्यं प्रपद्यन्ते परस्परम् ६१ अराजके युगववशात्संशये समुपस्थिते । प्रजास्ताः वै ततः सर्वाः परस्परभयादताः ६२ व्याकुलाश्च परिधान्तास्त्यक्त्वा दारगृहाणि च। स्वान्प्राणान्समवेक्षन्तो निष्कारुण्याः सुदुःखिताः।e३ नष्टे श्रते स्मृते धर्मे परस्परहतस्तदा। निर्मर्यादा निराक्रन्दा निस्नेहा निरपत्रपाः ।।६४ नष्टे वर्षे प्रतिहता हस्वकाः पर्वावशकाः। हित्वा दारांश्च पुत्रांश्च विषादव्याकुलेन्द्रियाः ॥६५ अनावृष्टिहताश्चैव वार्तामुत्सृज्य दुःखिताः । प्रस्यन्तांस्तान्निषेवन्ते हित्वा जन ग्दान्स्वकान् ।४६ सरितः सागरानूपान्तेवन्ते पर्वतांस्तदा । मधुमासैमूलफलैर्वर्तयन्ति सुदुःखिताः ६७ कर सभी जीव जन्तुओं एवं मनुष्यों का विनाश करता है और इस प्रकार अपने प्रचण्ड कर्म द्वारा समस्त पृथ्वी मण्डेल को पराक्रम शून्य कर निमित्त वश एवं आकस्मिक क्रोध से उन अधामिक शूद्रों को दण्ड दे गङ्गा और यमुना के मध्य भाग में अपने अनुगामियों समेत शरीर त्याग करती है ।८५-८८। तदुपरन्त उस सन्ध्यांश काल में सहस्रों शूद्रवंशीय राजाओं एवं सभी म्लेच्छों को श्वस्त कर सैनिकों एवं मंत्रियों के समेत प्रमिति के स्वर्गस्थ हो जाने पर यत्र तत्र स्थान स्थान पर थोड़ी संख्या में प्रजाएँ शेष बच रहती है। किसी शासक के अभाव में विना नियन्त्रण के उन सभी लोगों की चेष्टाएँ एक दूसरे के मारने लूटने खसोटने की ओर हो जाती हैं । इस प्रकार उस युगान्त में अराजकता के समय जब कि जीवन का संशय उपस्थित हो जाता है, सभी लोग एक दूसरे के भय से विह्वल एवं परिश्रान्त होकर घर द्वारा स्त्री बच्चों को छोड़कर अपने अपने प्राणों का ध्यान करते हुये इधर उधर भटकते हुए करुणा से रहित होकर अति दुख का अनुभव करते हैं (८६६३॥ उस समय श्रोत स्मार्त धर्मों के विनष्ट हो जाने पर मर्यादा, दया, लज्जा एवं स्नेह रहित सारे लोग एक दूसरे से युद्ध करते हुये मृत्यु प्राप्त करते हैं । उस समय के लोग लघुकाय के तथा पचीस वर्ष की छोटी उन वाले होते हैं, वे अपने पुत्र स्त्री प्रभृति परिवार के लोगों को छोड़कर विषाद इसे व्याकुलेन्द्रिय रहते है । है । घोर अनावृष्टि से पीड़ित होकर वे जीविका की आशा छोड़ देते हैं और अपने अपने जनपदों को छोड़कर समीपस्थ देशों में निवास करते हैं । उस समय वे प्राणी नदियों, सागरों; जलप्राय स्थलों एवं पर्वतों पर अति दुःखित जीवन बिताते हुए मछु, मांश मूल तथा फलों से जीविका निर्वाहित करते हैं ।e४-४७