पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४८०

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

अष्टपञ्चाशोऽध्यायः ४६१ ८ परस्परविभिन्नैस्तैदृ ष्टीनां विभ्रमेण च । अयं धर्मो ह्ययं नेति निश्चयो नाभिगम्यते कारणानां च वैकल्यात्कारणस्याप्यनिश्चयात् । मतिभेदे च तेषां वै दृष्टीनां विभ्रमो भवेत ॥e ततो दृष्टिविभिन्नैस्तैः कृतं शास्त्रकुलं त्विदम् । एको वेदश्चतुष्पादस्त्रेतस्विह विधीयते ।।१ संरोधादायुषश्चैव दृश्यते द्वापरेषु च । वेदव्यासैश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु ११ ऋषिपुत्रैः पुनर्वेद भिद्यन्ते दृष्टिविभ्रमैः। मन्त्रब्राह्मणविन्यासैः स्वरवर्णादिपर्ययैः १२ संहिता ऋग्युजुःसाम्नां संहन्यन्ते धृतषभिः। सामान्याद्वैकृताच्चैव दृष्टिभिन्नैः क्वचित्क्वचित् ।।१३ ब्राह्मणं कल्पसूत्राणि मन्त्रप्रवचनानि च । अन्ये तु प्रहितास्तीर्णाः केचित्तान्प्रत्यवस्थिताः १४ द्वापरेषु प्रवर्तन्ते भिन्नवृत्ताश्रमा द्विजाः । एकमाध्वर्यवं पूर्वमासीद्द्वेधं पुनस्ततः ।।१५ सामान्यविपरीतथैः कृतं शास्त्रकुलं त्विदम् । आध्वर्यवस्य प्रस्तावैर्बहुध व्याकुलं कृतम् १६ तथैवाथर्वऋक्साम्नां विकल्पैश्चाप्यसंक्षयाः । व्याकुलं द्वापरे भिन्नं क्रियते भिन्नदर्शनैः ॥१७ उनमें भिन्नभिन्न मनुष्यों के भिन्न-भिन्न मत हो जाते हैं ।६-७। दृष्टि विभ्रम के कारण परस्पर भिन्न-भिन्न मत रखने वाले उन मनुष्यों के बीच में ‘यह धर्म है, यह अधर्म है, इस बात का निश्चय नही हो पाता। कारणों की विकलता (अपूर्णता) एवं अनिश्चित बुद्धि के कारण भिन्नभिन्न मति रखने वाले उन मनुष्यों में दृष्टि विभ्रम का हो जाना स्वाभाविक हो जाता है । उन विभ्रान्त दृष्टि वाले मनुष्यों से शस्त्र बेचारे व्याकुल हो जाते है। एक वेद का त्रेतायुग में चार चरण करके चार विभाग किये गये हैं ।८१०द्वापरादि युगों में मनुष्यों की अल्पायु के कारण वेदव्यासों ने वेद को चार भागों में विभक्त किया। उसके बाद भी दृष्टि विभ्रम के कारण ऋषि पुत्रों द्वारा उन वेदों का विभाग हुआ, जिसमें स्वर और वर्गों के विपर्यय से मन्त्र और ब्राह्मण—दो भाग हुये । भ्रान्त दृष्टि वाले उन वेदाभ्यासी ऋषियों ने कहीं-कही सामान्य ढंग से और कहीं-कहीं बुद्धि की विकृति के कारण ऋक्, यजु और साम की सहिताओं का विपर्यय कर दिया । परिणाम स्वरूप, ब्राह्मण, कल्पसूत्र, मन्त्र, प्रवचन आदि सभी विपर्यस्त हो गये । उनमें से कुछ तो ब्राह्मणों से दूर कर दिये गये और कुछ उन पर आस्याशील बने रहे ।१११४। द्वापर युगों में आश्रम घर्म का विपर्यय हो जाता है, द्विजादिगण अपने अपने आश्रमधर्म से एव आचारों से च्युत हो जाते हैं, प्राचीन काल में केवल एक आघ्वयंत्र१ था, जिसका बाद में चलकर दो विभाग हो जाता है। सामान्य अर्थों के स्थान पर विपरीत अर्थ समझने के कारण यह शास्त्र ही एकदम से अस्त व्यस्त हो जाता है, इस प्रकार आघ्वयंव के विभिन्न प्रस्तावों के कारण उसका मूलरूप विकृत हो जाता है । इसी प्रकार अथर्ववेद, ऋग्वेद और सामवेद में भी अतर्य विकल्पों के कारण भिन्न १. यजुर्वेद का अध्वर्यं सम्बन्धी कर्म ।