पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४७९

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४६० अथाष्टपचशऽध्यथः बजुङ गाड्यानम् सत उवाच अत ऊध्र्वं प्रवक्ष्यामि द्वापरस्य विधि पुनः । तत्र त्रेतायुगे क्षीणे द्वापरं प्रतिपद्यते ॥१ द्वापरादौ प्रजानां तु सिद्धिस्त्रेतायुगे तु या। परिवृत्ते युगे तस्मिस्ततः सा संप्रणश्यति । ॥२ ततः प्रवर्तते तासां प्रजानां द्वापरे पुनः । लोभोऽधृतिर्वणिग्युद्धं तत्त्वानामविनिश्चयः ॥३ संभेदश्चैव वर्णानां कार्याणां च विनिर्णयः । याच्या वधः पणो दण्डो मदो दम्भोऽक्षमाऽबलम् ।। एषां रजस्तमोयुक्ता प्रवृत्तिद्वपरे स्मृता आद्ये कृते न धर्मोऽस्ति त्रेतायां संप्रपद्यते । द्वापरे व्याकुली भूत्वा प्रणश्यति कलौ युगे ।।५ वर्णानां विपरिध्वंसः संकीत्यंते तथाऽऽश्रमः । द्वैधमुत्पद्यते चैव युगे तस्मिञ्श्रुतौ स्मृतौ ६ दूधाच्छतेः स्मृतेश्चैव निश्चयो नाधिगम्यते । अनिश्चयाधिगमनाद्धर्मतत्त्वं न विद्यते । धर्मतत्त्वे तु भिन्नानां मतिभेदो भवेन्नृणाम् ।४ ॥७ अध्याय ५८ सूतजी बोले-—अव इसके उपरान्त के द्वापर युग के स्वभाव का वर्णन करता हूँ । त्रेता युग के क्षीण होने के बाद द्वापर युग का समय आता है । इस द्वापर युग के आदिम काल में मनुष्यों को त्रेता युग मे जो सिद्धियाँ प्राप्त रहती हैं, वे युग की समाप्ति के साथ समाप्त हो जाती है ।१-२। तदुपरान्त द्वापर में उन्ही प्रजाओ के मन में लोभअधैर्यं, वणिक् वृत्ति, युद्ध-वृत्ति, युद्ध, तत्वों का अनिश्चय, ब्रह्मादि वर्गो मे पारस्परिक मतभेद, कायकयं का अनिर्णय. याचना. वध, पण (नौकरी या पैसे पैदा करने के अन्य उपाय, दण्ड, मद, दम्भ, अक्षमा, निर्बलता-इम सभी अवगुणों की रजोमय एवं तपोमय प्रवृत्तियां पाई जाने लगती हैं- ऐसा कहा गया है ।३-४। आदिम युग कृत मे धर्म नहीं था त्रेता युग में उसकी प्रवृत्ति होती है; द्वापर में वह व्याकुलित होकर कलियुग मे विनष्ट हो जाता है । उसमे वर्षों एवं आश्रमों का विध्वंस हो जाता है, तथा श्रुतियों एवं स्मृतियों के दुविधा के भाव उत्पन्न हो जाते हैं । श्रुतियों तथा स्मृतियों के दो चीभाव के कारण किसी विषय का निश्चय नही होता एवं अनिश्चय परिणाम यह होता है कि धमें तत्वों का सवैया विलोप हो जाता है । और