पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४७५

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४५६ अथाश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः। यजन्ते पशुभिर्मेध्यैह्रस्वा सर्वे समागताः ६२ कर्मव्यग्नेषु ऋत्विक्षु सतते यज्ञकर्मणि। संप्रगीतेषु तेष्वेदमागमेष्वथ सुल्बरम् ६३ परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युवृषभेषु च । आलठ्धेषु च मेध्येषु तथा पशुगणेषु वै ॥६४ हविष्यग्नौ हूयमाने देवानां देवहोतृभिः। अहूतेषु च देवेषु यज्ञभाशु महात्मसु ।।५ य इन्द्रियात्मका देव यज्ञभाजस्तथ तु ये । तास्यजन्ते तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति थे &६ अध्वर्यवः प्रैषकाले व्युत्थिता ये महर्षयः। महर्षयस्तु तान्दृष्ट्वा दीनान्पशुगणान्स्थितान् । प्रपच्छुरिन्द्रं संभूय कोऽयं यज्ञविधिस्तष ६७ अधर्मो बलवानेष हिसधर्मेप्सया तव । नेष्टः पशुवधस्त्वेष तव यज्ञे सुरोत्तम ६८ अधर्मो धर्मघताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया । नायं धर्मो धर्मोऽयं न हिस धर्म उच्यते && आगमेन भवस्यनं करोतु यदिहेच्छसि । विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्ममव्ययहेतुना । यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ येषु हिंसा न विद्यते १०० कर्मो मे नियंत्रित कर सभी देवताओं के साथ सम्पूर्ण सामग्रियों एवं उपकरणों समेत यज्ञ प्रचलित की प्रथा की; उस समय अश्वमेध यज्ञ का कार्य जब प्रारम्भ हुआ सभी महपि गण आकर उनमें सम्मिलित हो गये, और मेष्य पशुओं द्वारा यज्ञ का कार्य प्रारम्भ सुनकर सभी लोग दर्शनार्थं उपस्थित हुये, उस समय जब सभी पुरोहित गण उस निरन्तर चलने वाले यज्ञ कर्म मे व्यंस्त हो गये, उच्च सुमधुर स्वर मे वेद की ऋचाओं का गायन होने लगा, यज्ञ कर्म में व्यस्त रहने के कारण प्रमुख-भ्रमुख अध्वर्युगण इधर उधर शीव्रता में घूमने फिरने लगे ।८६--३३। हवनीय पशुओ का वध होने लगा, देवताओं के होता गण अग्नि में हविष् की आहुति देने लगे, यज्ञ में भाग पाने वाले देवता एव महात्मागण आवाहित होने लगे, देवता लोग प्रत्येक कल्पों में यज्ञ मे भाग प्राप्त करने के अधिकारी इन्द्रियात्मक देव गणों की पूजा करने लगे, ठीक उसी समय यज्ञ मण्डल में समागत महपगण अध्वर्युगण को पशुओं के स्नानादि में समुद्यत देखकर उन पशुओं की दीनता से करुणाद् होकर इन्द्र से बोले कि यह तुम्हारे यज्ञ की कैसी विधि है ।e४-६७l iहसमय धर्म कार्य करने को इच्छुक तुम यह महान अधर्म कर रहे हो, सुरोत्तम ! तुम्हारे जैसे देवराज के यज्ञ से यह पशुवध कल्याणकारी नही है । इन दोन पशुओं की हिंसा से तुम अपने संचित धर्म का विनाश कर रहे हो, यह पशुहिसा कदापि घर्म नही है, हिंसा कभी भी धर्म नही कहा जाता । यदि तुम्हे यज्ञ करने की अभिलाषा है तो वेद विहित यज्ञ का अनुष्ठान करो हे सुरश्रेष्ठ ! वेदानुमत विधि से किया गया यज्ञ अक्षयफलदायी होगा, उन यज्ञ बीजों से तुम यज्ञ प्रारम्भ करो, जिनमें हिंसा का नाम नही है । ८१००इन्द्र ! प्राचीन काल में तीन वर्ष के पुराने रखे