पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४६९

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४५० वायुपुराणम् एवं चतुर्यगाख्या तु साधिका हे कसप्ततिः । कृतत्रेतादियुक्ता सा मनोरन्तरमुच्यते ३३ मन्वन्तरस्य संख्या तु वर्षाग्रेण निबोधत । त्रिशत्कोटयस्तु वर्षाणां मानुषेण प्रकीतिताः ।।३४ सप्तषष्टिस्तथाऽन्यानि नियुतान्यधिकानि तु विशतिश्च सहस्राणि कालोऽयं संधिकं विना ॥t३५ मन्वन्तरस्य संख्यैषा संख्यविद्भिद्विजैः स्मृत। मन्वन्तरस्य कालोऽयं युगैः सार्ध प्रकीर्तितः . ॥३६ चतुःसहस्रयुक्तं वै प्रथमं तस्कृतं युगस् । त्रेत(शष्टं वक्ष्यामि द्वापरं कलिमेव च ३७ युगपत्समवेतार्थं द्विधा वक्तुं न शक्यते । क्रमागतं मया कृ तत्तुभ्यं प्रोक्तं युगद्वयम् ॥ ऋषिवंशप्रसङ्गने व्याकुलत्वात्तथैव च ।।३८ तत्र त्रेतायुगस्याऽऽदौ मनुः सप्तर्षयश्च ते । श्रौतं स्मार्त च धर्मे च ब्रह्मणा च प्रचोदितम् १३६ दाराग्निहोत्रसंयोगमृग्यजुःसामसंज्ञितम् । इत्यादिलक्षणं तं धर्मं सप्तर्षयोऽब्रुवन् परम्परागतं धनं स्मार्त चऽऽचरलक्षणम् । वर्णाश्रमाचारयुतं प्रभुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् ॥४१ सत्येन ब्रह्मचर्येण श्रुतेन तपसा च वै । तेषां सुतप्ततपसामर्षेयेण क्रमेण तु। N४२ सप्तर्षीणां मनोश्चैव आद्ये त्रेतायुगस्य तु । अबुद्धिपूर्वकं तेषामक्तियपूवमेव च ४३ अभिव्यक्तास्तु ते मन्त्रास्तारकाद्युनिदर्शनैः। आदिकल्पे तु देवानां प्रादुर्भूतास्तु ते स्वयम् ॥४४ ४० मन्वन्तर का कहा गया है । मन्वन्तर के वर्षों की संख्या का प्रमाण इस प्रकार है, सुनिये । तोस करोड सड़सठ लाख बीस सहस्र मानव वर्षे को एक मन्वन्तर का समय कहा गया है काल को संख्या को जानने वाले द्विजगण संधिकाल को छोड़कर मन्वन्तर की यही सख्या स्मरण करते हैं । युगों के साथ मन्वन्तर के समय का वर्णन इस प्रकार कर चूका ३३-३६ जैसा कि पहले कह चुका हॅ इन चारों युगों में कृतयुग का प्रमाण चार सहस्र दिव्य वर्षों का है इसके अतिरिक्त त्रेता, द्वापर तथा कलि युग को बतला रहा हूँ । इसके पहिले ऋपियों के वंश वर्णन के प्रसंग में व्यग्रतावश मैं इन युगों के प्रमाण का निरूपण कर चुका हूँ ।३७३८एक प्रसंग मे आये हुए सयुक्त अर्थों का वर्णन दो प्रकार से अलग-अलग नही किया जा सकता. और क्रमशः इनके वर्णन को तो मैं तुम्हे सुना भी चुका हूँ । उस त्रेता युग के आदिम काल मे ब्रह्मा द्वारा निर्दिष्ट किये गये श्रौत एवं स्मार्त धर्म का प्रचार मनु और सप्त ऋषियो ने किया था । सातो ऋषियों ने ऋग्वेद, यजुर्वेद और समावेद से अनुमत स्त्री परिग्रह, अग्निहोत्रादि श्रत धर्म का उपदेश किया था । परम्परा से चले आनेवाले वर्णाश्रम के अनुपम आचार व्यवहार के पोषक स्मार्त धर्म का प्रचार स्वयम्भुव मनु ने किया था ।३६-४१ उस त्रेता युग के आदिम काल में उन परम तपस्वी सातो ऋषियो ओर मनु के सत्य, ब्रह्मचर्यं, ज्ञान एव तपस्या के कारण वेदोक्त क्रम से बुद्धि व्यापार एवं कर्मण्यता के बिना ही उन मन्त्रों की अभिव्यक्ति हुई । आदि कल्प में वे मन्त्र तारकादि निदर्शनों द्वारा देवताओं को स्वयमेव प्राप्त हुये थे किन्तु सिद्धियों के नष्ट हो जाने पर उनका फिर से प्रवर्तन