पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४६८

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सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ४४६ ईतरासु च संध्यासु संध्यांशेषु च वै त्रिषु । एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतनि च ।।२४ श्रेता त्रीणि सहस्राणि संख्यैव परिकीर्यते । तस्यास्तु त्रिशती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः ॥२५ द्वापरं वे सहस्र' तु युगमाहुर्मनीषिणः। तस्यापि द्विशती संध्या संध्यांशः संध्यया समः २६ कल वर्षसहस्र' तु युगमाहुर्मनीषिणः । तस्याप्येकशती संध्या संध्यांशः संध्यया समः २७ एषा द्वादशसाही युगाख्या परिकीतिता । कृतं त्रेता द्वापरल कलिश्चैव चतुष्टयम् २८ अत्र संवत्सराः सृष्टा मानुषेण प्रमाणलः। ऋतस्य तबद्वक्ष्यामि वर्षाणां तत्प्रमाणतः १।२& सहस्राणां शतन्यत्र चतुर्दश तु संख्यया । चत्वारिंशत्सहनजि कलिलयुगस्य तु ३० +एवं संध्यांशकालस्य कालेष्विह विशेषतः । एवं चतुर्युगः कालो विना संध्यांशकैः स्मृतः ।।३१ नियुतस्थेकषविशनिरंशानि तु तानि वै । चत्वारिंशस्त्रीणि चैव नियुतानि च संख्यया । विशतिश्च सहस्राणि स संध्यांशश्चतुर्युगे ।३२ = ==

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-- - - -- सहस्र सथा एकएक सौ वर्षों की न्यूनता रहती है । इस प्रकार त्रेता युग का प्रमाण तीन सहस्र वर्षों का कह गया है और उसकी संध्या तथा संध्यांश का प्रमाण तीन सौ वर्षों का है । पंडित जन द्वापरयुग का प्रमाण दो सहस्र वर्षों का वतलाते हैं उसकी संध्या तया संध्यांश को संख्या भी दो-दो सौ वर्ष की मानी गई है । इसी प्रकार विद्वानों ने कलियुग का प्रमाण एक सहस्र वर्ष का और उसकी भी संध्या तथा सध्यांश एक-एक सौ वर्षों का माना है ।२३-२७। यह बारह सहस्र वर्षों की संख्या सतयुग घेता द्वापर तथा कलियुग इन चारो युगों की कही गई है, यह दिव्य वर्षों का प्रमाण है । इस संसार में संवसरों की कल्पना मानव वर्ष के प्रमाण से हुई है, अतः उसी के द्वारा कृतयुग का प्रमाण बतला रहा हूँ, वह कृत युग चौदह लाख चालीस सहस्र मानव वर्ष का कहा गया है, कलियुग का प्रमाण चालीस हजार वर्ष है । चारो युगों का प्रमाण इसी प्रकार संख्या और संध्यांश से विहीन छत्तीस नियुत वर्षे अर्थात् छत्तीस लाख वर्ष स्मरण किया गया है तथा तैतालीस नियुक्त अर्थात् तैतालीस लाख तथा बीस सहस्र मानव वर्षों का संध्या और संध्यांशों समेत चरों युग का प्रमाण कहा गया है ।३२ सतयुगत्रेता, द्वापर और कलियुग-इन २८-इसी प्रकार , चारों युगों का इकहतर गुना काल एक +इदमर्थं नास्ति क पुस्तके । । अस्मिन्नर्थस्थान इदमर्घ संख्यातस्त्वेककालस्तु फाले स्विह विशेषत | इत ख, ग, घ, ङ. पुस्तकपु । १. कई मूल पुस्तकों में इस स्थल का पाठ भिन्नभिन्न है, किसी में आधा इलोक है ही नहीं, अत । अनुबाद की गति भंग हो जाती है आनन्दाश्रम की प्रति में जोड़ा गया अर्धश्लोक संगति विहीन है । 'o - ५७