पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४६५

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४४६ स्वायंभुवस्य होत्येष सर्गः फ्रान्तो मयाऽत्र वै । विस्तरेणाऽऽनुपूव्र्या च भूयः किं वर्णयाम्यहम् ॥४ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते पितृवर्णनं नाम षट्पञ्चाशोऽध्यायः ।।६५।। अथ सप्तपञ्चाशोऽध्यायः यक्वणनम् ऋषय ऊचुः चतुर्युगानि (णि) यान्यासन्पूर्वं स्वायंभुवेऽन्तरे । तेषां निसर्गं तत्त्वं च श्रोतुमिच्छामि विस्तरात् ॥१ २ सूत उवाच पृथिव्यादिप्रसङ्गन यन्मया प्रागुदाहृतम् । तेषां चतुर्युगं ह्यतत्प्रवक्ष्यामि निबोधत संख्ययेह प्रसंख्याय विस्तराच्चैव सर्वशः । युगं च युगभेवं च युगधर्म तथैव च युगसंध्यंशकं चैव युगसंधानमेव च। पक्षकारयुगाख्यानां प्रवक्ष्यामीह तत्त्वतः ॥३ ॥४ को इस प्रकार बढा करनी चाहिये । यहाँ पर मैने विस्तार पूर्वक यथार्थरूप से स्वाम्भुव मनु के सृष्टि तत्व का वर्णन किया है । अब आप लोग ओर क्या सुनना चाहते हैं 18३-४४॥ श्री वायुमहापुराण मे पितृवर्णन नामक छप्पनवाँ अध्याय समाप्त ।।५६। अध्याय ५७ ऋपिथं ने कहा-सूते जी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तर मे जो चार युग थे उन सबों के स्वभाव एवं तत्व को विस्तारपूर्वक सुनने के हम इच्छुक है ।१। सूत ने कहा-ऋषिवृन्द ! पृथ्वी आदि के वर्णन प्रसङ्ग मे मैंने जिन चारों युगों का वर्णन पहिले किया था उनको विस्तारपूर्वक वलता रहा हूँ, सुनिये ।२। प्रत्येक युगों का मान संख्याओं से परिगणित कर युग युगभेद, युगधर्म, युगसंधि, युगाश, तथा युगसंधान-इन छः प्रकार के युगों को तत्त्वतः बेतला रहा हूँ '३'