पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४६

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चतुर्थोऽध्यायः असंशयात्मवक्ष्यामि भूतसर्गमनुत्तमम् । अव्यक्तकारणं यत्तु नित्यं सदसदात्मकम् ।१८ प्रधानं प्रकृतिं चैव यमाहुस्तत्त्वचिन्तकाः। गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्दस्पर्शविवर्जितम् ।।१६ अजतं ध्रुवमक्षय्यं नित्यं स्वात्मन्यवस्थितम् । जगद्योनिं महद्भूतं परं ब्रह्म सनातनम् ।।२० विग्रहं सर्वोभूतानामव्यक्तमभषकिल । अनाद्यन्तमजं सूक्ष्मं त्रिगुणं प्रभाचव्ययम् ॥२१ असांप्रतमविज्ञेयं ब्रह्माग्रे समवर्तत । तस्याऽऽमना सर्वमिदं व्याप्तमासीत्तमोमयम् ।। २२ गुणसाम्ये तदा तस्मिन्गुणभावे तमोमये । सर्वकाले प्रधानस्य क्षेत्रज्ञाधिष्ठितस्य वै । गुणभावाद्वाच्यमानो महान्प्रादुर्बभूव ह । सूक्ष्मेण महत सोऽथ अव्यक्तेन समावृतः ।२४ स चोद्रिक्तो महानग्रे सस्वमात्रं प्रकाशकम् । मनो महांश्च विज्ञेयो मनस्तत्कारणं स्मृतम् ।।२५ लिङ्गमात्रसमुत्पन्नः क्षेत्रज्ञाधिष्ठितस्तु सः । धर्मादीनां तु रूपाणि लोकतर्वर्धहेतवः ।।२६ महांस्तु सुष्टिं कुरुते नोद्यमानः सिसृक्षया । मनो महामतिर्नाहा भूवुद्धिः ख्यातिरीश्वरः । प्रज्ञा चितिः स्मृतिः संविद्धिपुरं चोच्यते बुधैः। मनुते सर्वभूतानां यस्माच्चेष्टाफलं विभुः२८ स(स्वमत्वेन चिक्रुद्धानां तेन तन्मन उच्यते । तत्त्वानामग्रजो यस्मान्महांश्च परिमाणतः ।।२६ शेषेभ्योऽपि गुणेभ्योऽसौ महानिति ततः स्मृतः । बिभर्ति मनं मनुतेचिभागं मन्यतेऽपि च । अव्यक्त कारण जो सदा सत् असत् रूप में रहता है जिसे तत्त्वचिन्तक लोग प्रधान एवं प्रकृति तथो गन्ध, वर्ण से शून्य शब्द स्पर्श से रहित, अजात, ध्रुव, अक्षय्य, नित्य, अपने मे उपस्थित, जगत् का आदि कारण, महत् भूत, पर-ब्रह्म, सनातन तथा समस्त भूतों के विग्रह (शरीर रूप) और अव्यक्त कहते हैं, जो आदि अन्त से रहित, सूक्ष्म, निर्गुणारमक, सब की उत्पत्ति तथा प्रलय का स्थान असाम्प्रत, अविज्ञेय ब्रह्म पहले हुआ उसी की आत्मा से यह समस्त तपोमय जगत व्याप्त था ।१८-२२उस गुणों की साम्यावस्था, तमोमय वह केवल एक गुणभाव वाले सृष्टि काल में क्षेत्रज्ञ के अधिष्ठान से गुणयुक्त महान् नामक तत्त्व प्रकट हुआ जो पहले सूक्ष्म महत् अव्यक्त से ढका था । पहले सत्त्व बहुल महान् प्रकट हुआ । सत्त्वमात्र प्रकाशरूप मन को ही महान् समझना चाहिये । उसका कारण भी मन ही कहलाता है । क्षेत्रज्ञ के अधिष्ठान से वह लिङ्ग मात्र उत्पन्न हुआ लोक के तत्त्वों के कारण धर्म आदि उसके रूप हैं ।२३-२६। सृष्टि की इच्छा से प्रेरित होने पर महान् ही सृष्टि करता है । उसी को पण्डित लोग मन, महान्, मति, ब्रह्मा, भू, बुद्धि, ख्याति, ईश्वरप्रज्ञा, चिति, स्मृति, संविद् और विपुर कहते हैं । यह विभू, सूक्ष्मता से विवृद्ध समस्त भूतों की चेष्टा के फल का मनन कर लेता अर्थात् उनको है इसलिये इसको मन कहते है ।२७-२६। तत्त्वों में सब से प्रथम उत्पन्न होने समझ जात परिमाण में अथच शेष गुणों से बड़ा होने के कारण इसको महान् कहते हैं । यह मान धारण करता जगत् तथा पुरुष के भोग के सम्वन्ध से विभाग को समझता और जानता है इसलिए उसे मति कहते हैं । वृहद्