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वायुपुराणम्

अथ द्वितीयोद्याअयः

द्वदसवार्षिकसत्रनिरुपणम्

प्रत्यब्रुवन्पुनः सूतमृषयस्ते तपोधनाः । कुत्र सत्रं । समभचत्तेपामद्भुतकर्मणाम् ॥१
कियन्तं चैव तत्कालं कथं च समवर्तत । आचचक्ष पुराणं च कथं तेभ्यः प्रभञ्जनः ॥२
आचचच विस्तरेणेदं परं कौतूहलं हि नः। इति संनदितः सुतः प्रत्युवाच शुभं घचः ॥३
श्रुणुध्वं तत्र ते धीरा ईजिरे सत्रमुत्तमम् । याधन्तं चाभवत्कालं यथा च समवर्तत ॥४
सिस्टुष्क्षमाणा विश्वं हि यत्र विश्वसृजः पुरा । सत्रं हि ईजिरे पुण्यं सहस्र परिवत्सरान् ॥५
तपो गृहपतिर्थेत्र ब्रह्म ब्रह्माऽभवत्स्वयम् । इलाया यत्र पत्नीत्वं शामित्रं यत्र बुद्धिमान् ॥६
मृत्युश्चक्रे महतेक्षस्तस्मिन्सत्रे महत्मनाम् । विबुधा ईजिरे तत्र सहस्र प्रतिवत्सरान् ॥७॥
भ्रमतो धर्मचक्रस्य यत्र नेमिरशर्यत । कर्मणा तेन विख्यातं नैमिषं । मुनिपूजितम् । ।८
यत्र सा गोमती पुण्या सिद्धचारणसेविता । रोहिण सुपुत्रं तत्र ततः सौम्योऽभवत्सुतः ।€
शक्तिज्येष्ठाः समभचस्वशिष्ठस्य महात्मनः । अरुन्धस्याः सुता यत्र शतमुत्तमतेजसः ।१० ॥
कल्माषपादो नृपतिर्यत्र शप्तश्च शक्तिना । यत्र चैरं समभवद्धिश्वामित्रयशष्टयोः ॥१६

 


अध्याय २

फिर उन तपस्वी ऋषियों ने सूत जी से कह‘उन विचित्रकर्ता ऋषियों का यक्ष कहां हुआ ? कितना समय लगा ? और किस प्रकार वह यज्ञ सम्पन्न हुआ ? वायुदेव ने उन ऋषियों को कैसे पुराण सुनाया ? यह वात विस्तार से बतलाइये । हम लोगों को बड़ा कुलूहल हो रहा है ।१-२। ऋषियों के इस प्रकार पूछने पर सूत जो मधुर वचन बोले-"उन धीर मुनियों ने जहाँ उत्तम यज्ञ किया, जितना समय उसमें लगा एवं जिस प्रकार वह सम्पन्न हुआ, ये सारी बाते आप लोग सुनिये ।३-४ जहाँ विश्व की सृष्टि की इच्छा से प्राचीनकाल में विश्व के स्रष्टाओं ने सहस्र वर्ष पर्यन्त पवित्र यज्ञ किया था, जिस यज्ञ मे तप ही यजमान और ब्रह्मा स्वयं ब्रह्मा हुए थे, जिसमें इला ने पत्नी तथा बुद्धिमान तेजस्वी मृत्यु ने शामित्र (पशुबंधन-स्थान) का कार्य किया था । महात्माओं के उस सत्र में जहाँ देवों ने सहस्र वर्ष तक यज्ञ किया था जहाँ घूमते घूमते धर्मचक्र की नेमि विशीर्ण हो गई और इसीलिए जिस मुनिपूजित प्रदेश का अर्थतः नेमिष नाम पडा। जहाँ सिद्धों और चारणों से सेवित गोमती है, जहाँ रोहिणी से सौम्य नामक सुत उत्पन्न हुआ ॥५-६। जहाँ महात्मा वशिष्ठ तथा अरुन्धती के अति तेजस्वी सौ पुत्र उत्पन्न हुये, जिनमें शक्ति ज्येष्ठ था; जहां शक्ति ने कल्माषपाद् ऋषि को शाप दिया; जहाँ विश्वामित्र और वशिष्ठ में