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प्रथमोऽध्यायः


तथा पाशुपता योगः स्थानानां चैव कीर्तनम् । लिङ्गोद्भवस्य देवस्य नीलकण्ठत्वमेव च ॥१५
कथ्यते यत्र विप्राणां वायुना ब्रह्मवादिना। धन्यं यशस्यमायुष्यं सर्वेपापप्रणाशनम् ।।१६६
कीर्तनं श्रवणं चास्य धारणं च विशेषतः । अनेन हि क्रमेणेदं पुराणं संप्रचक्ष्यते १६७
सुखमर्थः समासेन महानप्युपलभ्यते । तस्मात्किचित्समुद्दिश्य पश्चाद्वक्ष्यामि विस्तरम् ॥१६८
पादमाद्यमिदं सम्यग्योऽधीयीत जितेन्द्रियः । तेनाधीतं पुराणं तत्सर्वं नास्त्यत्र संशयः ॥१८
यो विद्याच्चतुरो वेद्म्न्साङ्गोपनिषदो द्विजः । न वेत्पुराणं संचिद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः ॥२००
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपशृंहयेत् । बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति ।२०१
अभ्यसन्निममध्यायं साक्षाप्रोक्तं स्वयंभुवा । आपदं प्राप्य मुच्येत यथेष्ट प्राप्नुयाद्गतिम् ।।२०२
यस्मात्पुरा ह्यनतीदं पुराणं तेन तत्स्मृतम्। निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ।२०३
नारायणः सर्वमिदं विश्वं व्याप्य प्रवर्तते । तस्यापि जगतः स्रष्टुः स्त्रष्टा देवो महेश्वरः ॥२०४

अतश्च संक्षेपमिमं शृणुध्वं महेश्वरः सर्वमिदं पुराणम् ।
स सर्घकाले च करोति सर्गे संहारकाले पुनराददीत ॥२०५

इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते प्रक्रियापादेऽनुक्रमणिका नाम प्रथमोऽध्यायः


 


का अवतार हुआ तथा पाशुपत योग एवं स्थान और लिङ्ग को उत्पत्ति तथा महादेव का कण्ठ कंसे नीला हुआ संव बताया गया है। यह ब्रह्मवादी वायु ने विषों से सब पापों को नाश करने वाले तथा धन यश और आयु देने वाले इस पुराण को कहा है ।१६२-१९६इस पुराण का श्रवण, कीर्तन और विशेष रूप से धारण ही फलदायक है, इसी क्रम से यह पुराण कहा जाता है । लम्वी बात भी थोड़े में कहने पर सहज में समझ ली जाती है, इसीलिये पहले संक्षेप में कह कर फिर पीछे से विस्तार पूर्वेक कहूँगा जो जितेन्द्रिय इस पाद को भली भाँति पढ़ लेता है उसने इस समस्त पुराण को पढ़ लिया इसमें सन्देह नहों ।१९७१९९। जो द्विज अङ्गों और उपनिषदों के साथ चारों वेदों को जानता है; किन्तु पुराण नहीं जानता वह चतुर नहीं हो सकता। वेद को इतिहास और पुराण द्वारा बढ़ाना चाहिये; अल्प विद्या वाले से वेद डरता है कि यह मुझे मार डालेगा अर्थात् अयं का अनर्थ कर देगा । साक्षात् स्वयम्भू ने इस अध्याय को कहा है, जो इसका अभ्यास करता है उसकी आई हुई आपत्तियाँ दूर हो जाती हैं और यथेष्ट गति उसे मिलती है । यह युग (अर्थात् पहले पहले) अनन (अर्थात् प्राणन) करता है इसलिये इसे पुराण कहते हैं; जो इसकी व्याकृति को जानता है, वह सब पापों से छूट जाता है। इस समस्त संसार में नारायण व्याप्त रहते हैं उस जगत् के स्रष्टा के भी स्रष्टा दैव महेश्वर हैं । अतएव संक्षेप में सुन लीजिये कि यह समस्त पुराण महेश्वर है । सर्ग काल में यही सृष्टि करते और संहार काल में प्रलय करते हैं ।२००-२०५१ श्रीवायुमहापुराण के प्रक्रियापाद में अनुक्रमणिकाकथन नाम का पहला अध्याय समाप्त । फा०-३