अष्टरूप्यमतः प्रोक्तं प्राणस्याष्टकमेव च। गतिश्चोध्र्वमधश्चोक्तो धर्माधर्मसमाश्रयात् ।।१६७
कल्पे कल्पे च भूतानां महतामपि संक्षयः । प्रसंख्याय च दुःखानि ब्रह्मणश्चष्यनित्यता ।।१६८
दौरात्म्यं चैव भोगानां परिणामविनिर्णीयः । दुर्लभत्वं च मोक्षस्य वैराग्याहोपदर्शनम् ।१६६
व्यक्ताव्यक्तं परित्यज्य सर्वं ब्रह्मणि संस्थितम् । नानात्वदर्शनाच्छुद्धं ततस्तदभिवर्तते ।।१७०
ततस्तापत्रयातीतो नीरूपाख्यो निरञ्जनः । आनन्दो ब्रह्मणः प्रोक्तो न विभेति कुतश्चन ॥१७१
कीर्यते च पुनः संगै ब्रह्मणोऽन्यस्य पूर्ववत् । कीर्यते ऋषिवंशश्च सर्वपापप्रणाशनः ॥१७२
इतिकृत्यसमुद्देशः पुराणस्योपवर्णितः । कीऍन्ते जगतो ह्यत्र सर्वप्रलयविक्रियाः ॥१७३
प्रवृत्तयश्च भूतानां निवृत्तीनां फलानि च । प्रादुर्भावो वशिष्टस्य शक्तेर्जन्म तथैव च ॥१७४
सौदासान्निग्रहंस्तस्य विश्वामित्रकृतेन च । पराशरस्य चोत्पत्तिरदृश्यत्वं यथा विभोः ॥१७५
जलं पितृणां कन्यायां व्यासश्चापि यथा मुनिः। शुकस्य च तथा जन्म लह पुत्रस्य धीमतः ।१७६
पराशरस्य प्रजेपो विश्वामित्रकृतो यथा । वशिष्ठसंभृतश्चान्निर्विश्वामित्रजिघांसया ।।१७७
संतानहेतोर्विभुना चीर्णः स्कन्देन धीमता । दैवेन विधिना विप्र विश्वामित्रहितैषिणा ।१७८
एकं वेदं चतुष्पादं चतुर्धा पुनरीश्वरः । यथा बिभेद भगवान्व्यासः सर्वान्स्वबुद्धितः ॥१७६
तस्य शिष्यैः प्रशिष्यैश्च शाखाभेदाः पुनः कृताः । प्रयोगैः षणीयैश्च यथा पृष्टः स्वयंभुवा ।१८०
अधर्म के आश्रय से ऊध्र्व एवं अधः गतिर्या वणित है ।१६४१६७। महान् भूतों का भी प्रत्येक कल्प मे क्षय तथा दुःखों को बताकर ब्रह्मा की भी अनित्यता बताई गई है । भोगों के दोष तथा उनके परिणाम का निश्चय तथा मोक्ष की दुर्लभता एवं वैराग्य से दोष देखने की बात कही है । व्यक्त और अव्यक्त का परित्याग कर के केवल ब्रह्म में स्थित एवं नानात्व के दर्शन से शुद्ध होकर जब जीव सत्त्व के परे जाता है। तब वह तीनों नाम से अतीत नीरूप नामक निरजन ब्रह्म का आनन्द कहलाता है फिर किसी से वह डरता नही ।१६८१७१। फिर पहले जैसी दूसरे ब्रह्मा की सृष्टि तथा सब पापो को नाश करने वाले ऋषियों के वंश का कीर्तन है । पुराण का इतिवृत्त वर्णन करके जगत् के सभी प्रलयों और विकारों की कथा है। फिर जीवों की प्रवृत्तियों तथा निवृत्तियों के फल एवं वसिष्ठ के प्रादुर्भाव और शक्ति के जन्म की कथा है । पुनः विश्वामित्र के द्वारा तथा सौदास से उनका निग्रह (अपमान) एवं प्रभु पराशर की उत्पत्ति तथा उनका अन्तर्धान वर्णित है ।१७२-१७५। पितरों की कन्या से व्यास मुनि के जन्म की कथा तथा पुत्र के सहित शुकदेव की उत्पत्ति की बात बताई है । पराशर का विश्वामित्र से वेष कसे हुआ एवं विश्वामित्र के वध की इच्छा से वशिष्ठ ने अग्नि प्रस्तुत किया दैवविधि से विश्वामित्र के हितैषी मतिमान् विभु स्कन्द ने सन्तान के निमित्त उसका पालन किया । फिर भगवान् ईश्वर व्यास ने एक चतुष्पाद वेद को चार भागों में अपनी बुद्धि से कैसे विभक्त किया - इन सबों का वर्णन है १७६ १७६। तत्पश्चात् उनके शिष्यों ने शाखाविस्तार किया। षड्गुणीय प्रयोगों से स्वयंभू प्रभु ब्रह्मा ने धर्म की