पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११

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becon इसी प्रकार वायु पुराण में ऋषियों का जो वंशानुकीर्तन किया गया है वह भी वैज्ञानिक है। ७० वें । अध्याय के प्रारम्भ ही में लिखा है कि 'प्रजापति ब्रह्मा ने सत्र के आधिपत्य पर क्रमशः भिन्न भिन्न को नियुक्त करने का उपक्रम किया । समस्त द्विजातिय, वीरुधों; नक्षत्रों, ग्रहों, यक्षों एवं तपस्याओं के राजा के पद पर सोम को अभिषिक्त किया । सभी अंगिरा के वंश में उस्पन्न होने वाली प्रजाओं का राज्यपद वृहस्पति को दिया । भृगु गोत्र में उत्पन्न होने वाली प्रजाओं का राज्य पद काव्य (चक्र) को दिया । इसी प्रकार आदित्यों का राज्यपद विष्ण को, मरुतों का वासव को दिया' यही बात ऋग्वेद (८।३।४) भी स्वीकार करते हुए कहता है कि अयं सहनं ऋषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे । सत्यः सो अस्य महिमा गृणेशवो यज्ञेषु विप्रराज्ये । यहाँ हजारों ऋषियों को विप्रराज्य अर्थात् चन्द्रमा के राज्य में बसने वाला कहा गया है । चन्द्रमा विप्र द्विजराज भी कहलाता है । चद्रमा की चन्द्रिका से समस्त ओषधियां वनस्पतियां बढ़ती है । चन्द्रोदय से नक्षत्र उद्भासित होते हैं इसलिए चन्द्रमा सब का राजा माना गया है । अधिक शोतल होने से विप्र भी कहा जाता है। वैदिक निघण्टु के अनुसार ऋषि शब्द का अयं नक्षत्र, किरण, आकाशीय चामकारिक पदार्थों और मनुष्य के शरीर में स्थित इन्द्रियों का वाचक है। अरुन्धती के सहित सप्तप और ध्रुव तो आकाशीय ग्रह विख्यात ही है । ऋग्वेद में ध्रुव के पिता उत्तानपाद का भी वर्णन है। याज्ञवल्क्य स्मृति में पितयानोऽजवीथ्याश्च यदगस्स्यस्य चान्तरम्, आदि श्लोक द्वारा यह स्वीकार किया गया है आकाश एक संसार है वहाँ गली, ग्रामनगरयुद्धऋषि आदि सभी कुछ है । इसी सिद्धान्त के अनुसार भाव यही है कि उत्तरी गोलार्ध में नामवीथी के अन्त में सप्तषि है और दक्षिणी गोलार्ध में अगस्य तारा के पास अजवीथी है । वहाँ ८८००० मुनि निवास करते हैं । याज्ञवल्क्य स्मृति के इस साक्ष्य से यह स्पष्ट सिद्ध हो गया कि यह वही ८८००० ऋषि हैं जो नैमिषारण्य में एकत्र सूत जी से पुराणों की कथा सुना करते थे । इसी प्रकार पुराणों में वणित अयोध्या, मिथिला, अंग, वंग, कलिग, कीकट के भी भाव वैदिक विज्ञान और रहस्य से भरे हैं । वैज्ञानिक दृष्टिकोण के इस विवेचन से यह स्पष्ट ज्ञात हो गया कि शास्त्रकारों ने पुराणों के सम्बन्ध में जो लिखा है कि पुराण वेदों के साथ ईश्वर के निःश्वास के रूप में प्रकट हुए हैं और विना पुराणों के अध्ययन मनन के वेदों का अध्ययन अधूरा होता है बिलकुल सही है। वैदिक संज्ञाओं, और परिभाषाओं तथा चामत्कारिक वर्णनों को अपने समय के राजाओं और घटनाओं से सामंजस्य मिला कर पुराणों की जो रचना की गयी है वह निःसन्देह स्तुत्य है। सामान्य निरूपण पौराणिक वंशावलियो पर विचार करते हुए हमने पीछे लिखा है कि ये वंशावलियाँ दो प्रकार के काल में विभक्त हैं । एक तो महाभारत काल में पूर्व की है और दूसरी महाभारत के बाद की है । प्रथम श्रेणी की