पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०९१

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१०७० वायुपुराणम् ॥२३ ।।२४ ।।२५ ॥२६ की फटादिमृतानां च पितॄणां तारणाय च । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन फर्तव्यं सुविचक्षणः ब्रह्मप्रकल्पितान्विप्रान्हव्यकव्यादिनाऽचर्ययेत् | तैस्तुष्टैस्तोषिताः सर्वा पितृभिः सह देवताः मुण्डनं चोपवासश्च सर्वतीर्थेष्वयं विधिः । वर्जयित्वा कुरक्षेत्रं विशालां विरजां गयाम् दण्डं प्रदर्शयेद्भिक्षुर्गयां गत्वा न पिण्डदः । दण्डं न्यस्य विष्णुपदे पितृभिः सह मुच्यते न दण्डी फिल्विषं धत्ते पुण्यं वा परमार्थतः । अतः सर्वां फ्रियां त्यक्त्वा विष्णुं ध्यायति भावुकः ||२७ संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकं न संन्यसेत् । मुण्डं कुर्याच्च पूर्वेऽस्मिन्पश्चिमे दक्षिणोत्तरे सार्धक्रोशद्वयं मानं गयेति ब्रह्मणेरितम् | पञ्चक्रोशं गयाक्षेत्रं क्रोशमेकं गयाशिरः तन्मध्ये सर्वतीर्थानि त्रैलोक्ये यानि सन्ति वै । श्राद्धकृद्यो गयाक्षेत्रे पितॄणामनुणो हि सः शिरसि श्राद्धकृद्यस्तु कुलानां शतमुद्धरेत् । गृहाच्चलितमात्रेण गयायां गमनं प्रति ॥ स्वर्गारोहणसोपानं पितॄणां च पदे पदे ॥२८ ॥२ ||३० ॥३१ पुरुष को सच प्रयत्न करके गया श्राद्ध करना चाहिए। उस समय ग्रह्मशान परायण विप्रों को हृष्य कन्यादि से सन्तुष्ट करना चाहिये, क्योंकि उनके सन्तुष्ट होने पर सभी देवगण व पितरगण सन्तुष्ट हो जाते हैं । विशाला, विरजा और गया को छोड़कर सभी तीर्थों में मुण्डन एवं उपधारा करने की विधि विहित है, पिण्डदान करनेवाले भिक्षु को गया में जाकर केवल दण्ड दिखलाना चाहिए, पिण्डदान नहीं करना चाहिए, विष्णुपद पर दण्ड रखकर वह पितरों के समेत मुक्ति लाम करता है। पारमार्थिक दृष्टि मे दण्डधारी पाप अथवा पुण्य का भागी नही होता, अतः सभी क्रियाओं का परित्याग कर भाव प्रवण होकर एकमात्र भगवान् विष्णु का ध्यान करता है |२३-२७७ संग्गासी को सभी कर्मों का परित्याग तो कर देना चाहिये, पर केवल वेद को नही भ्यागना चाहिये । गयातीर्थ में जाकर उसे तोर्थ के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर, किसी दिशा में मुण्डन कराना चाहिए । भगवान् ब्रह्मा ने गयातीर्थ का परिमाण टाई कोस का, गयाक्षेत्र का पनि फोस का तथा गया शिर का एक कोस का बतलाया है ।२८-२९ोक्य में जितने भी तीर्थ है, वे इसी के भीतर स्थित है। जो मनुष्य गया क्षेत्र में श्राद्ध करता है वह पितरों के ऋण से मुक्त हो जाता है। गया फिर मे जो श्राद्ध करता है वह सो कुलों का उद्धार करता है। घर से गया का प्रस्थान मात्र करने से पितरों को पद-पद पर स्वर्गारोहण की सोढ़ियाँ मिलने लगती हैं |३०-३११ अश्वमेध यज्ञ करने का जो फल होता है, वह समस्त फल गया पात्रा के एक १. अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सौराष्ट्र एवं मगध देशों में तीर्थयात्रा के अतिरिक्त यात्रा करने से प्राचीन स्मृतियों में पुनः शुद्धि संस्कार की आवश्यकता बतलाई गई है ।