पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०२०

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एकशततमोऽध्यायः एवं पूर्वानुपूर्वेण ब्रह्मलोकगतेन वै । एवं तेषु व्यतोतेषु तपसा परिकल्पिते ॥ वैराजे तूपपद्यन्ते दशकृत्वो निवर्तते एवं देवयुगानोह व्यतीतानि सहस्रशः । निधनं ब्रह्मलोके तु गतानामृषिभिः सह सूत उवाच न शक्यमानुपूर्व्येण तेषां वक्तुं प्रविस्तरम् | अनादित्वाच्च कालस्य असंख्याताच्च सर्वशः ॥ एवमेव न संदेहो यथावत्कथितं मया तदुपश्रुत्य वाक्यार्थमृषयः संशयान्विताः । सुतमाहुः पुराणज्ञं व्यासशिष्यं महामतिम् ऋषय ऊचु: वैराजास्ते यदाहारा यत्सत्त्वाश्च यदाश्रयाः । तिष्ठन्ति चैव यत्कालं तन्नो ब्रूहि यथातथम् तदुक्तमृषिभिर्वाक्यं श्रुत्वा लोकार्थतत्त्ववित् । सुतः पौराणिको वादयं विनयेनेदमब्रवीत् * ततः प्राप्यन्त ते सर्वे शुद्धिशुद्धतमाश्च ये | आभूतसंप्लवास्तत्र दश तिष्ठन्ति ते जनाः ॥६७ ॥६८ ॥६६ ।।७० - ॥७१ ॥७२ ॥७३ धारण का निवृत्त होते हैं (१) इसी प्रकार देवताओं के सहस्रों युग समाप्त हो गये हैं । ऋषियों के साथ मृत्यु प्राप्त कर वे देवगण वैराज लोकों में निवास करने के उपरान्त ब्रह्मलोक की प्राप्ति करते है ।६५-६८। सूत बोले – ऋषिवृन्द ! देवताओ की एवं लय सृष्टि के विस्तार को क्रमानुसार नहीं बतलाया जा सकता, काल का कोई आदि नहीं है । संख्याओं की भी कोई इयत्ता नहीं है । जैसा मैं आप लोगों को अभी बतला चुका हूँ, उसमें सन्देह मत मानिये, वह सब वैसा ही हुआ है |६६ सूत फी इन बातों को सुनकर ऋषियों को बहुत सन्देह हो गया, तब वे वेदव्यास के परम बुद्धिमान शिष्य सूत से, जो पुराणों के मार्मिक स्थलों को जानने वाले थे, बोले १७०। ऋषियों ने पूछा- सूत जो ! उस वैराज नामक लोकों में निवास करने वाले जो आहार करते हैं, उनका जो पराक्रम है, जिन पदार्थो या वस्तुओं का उन्हें आश्रय प्राप्त है, जितने समय तक वे वहाँ स्थित रहते है इन सब बातों को हम यथार्थतः सुनना चाहते हैं, बतलाइए' |७१। ऋषियों की इस जिज्ञासा को सुनकर लोकार्थ तत्ववेत्ता, पौराणिक सूत जी विनयपूर्ण स्वर में बोले । ऋषिवृन्द ! धर्माचरण के कारण जो परम शुद्ध एवं निर्विकार हो जाते हैं वे लोग उस वैराज नामक लोक में दस कल्प तक निवास करते हैं |७२-७३। वे सब परम ज्ञानो, सूक्ष्म एवं स्वच्छ शरीर समन्वित होते है । अनन्त काल तक अत्र सूत उवाचेति ख. पुस्तके |