पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/९५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

(८६) रुद्राष्टाध्यायी - [ पञ्चमो- वयम् ( इमा: ) अस्मदीया (मती: ) बुद्धीः (तबसे ) महते ( कपादने ) जटिलाय ( क्षयद्वीराय ) क्षयन्तो निवसन्तो वीराः शुभ यत्र स क्षयद्वीरस्तस्मै क्षयन्तो नवयन्तो चीरा रिपवो यस्मादिति वा ( रुद्राय ) रुद्रदेवाय ( प्रभरामहे ) समर्पयामः ॥ ४८ ॥ भाषार्थ- जिस प्रकार पुत्रादिमें गवादिपशुओं में सुखकी प्राप्ति हो तथा इस ग्राम में संपूर्ण आणिसमूह पुष्ट उपद्रवरहित हो उसी प्रकार हम इन अपनी वृद्धियोंका महानकी जटिलरवी- रॉके निवासभूत रुद्रदेवता के निमित्त समर्पण करते हैं ॥ २८ ॥ मन्त्रः | याति॑रुद्र शिवातनः शिवाविश्वाहामेषुजी | शिवात रु॒तस्य॑ भेष॒जीतयनोमृडजी बसें ४९१२ ॐ याते रुद्र इत्यस्य परमेष्टी प्रजापतिर्वा देवा ऋपयः | आर्ण्यनुष्टुप छंदः | रुद्रो देवता | वि०पू० ॥ ४९ ॥ भाष्यम् - (रुद्र ) हे शंकर (या ) ( ते ) तब (शिवा ) शान्ता ( विश्वाहा ) सर्वदा (शिवा) कल्याणकारिणी (भेषनी) औषधरूपा संसारख्याधिनिवर्तका तथा ( रुतस्य ) व्याधे: (शिवा) समीचीना (भेषजी ) निवर्तकौ पधि: ( तनूः ) शरीर मस्ति ( तथा ) ( तन्वा ) शरीरेण शक्त्या वा ( नः ) अस्मान् (जीवसे ) जीवितुम् ( मूड ) सुखय ॥ ४९ ॥ भाषार्थ- हे शकर | जो आपकी शान्त निरतर कल्याणकारिणी सौषधिरूप संसारकी व्यापिनिवृत्त करनेवाली तथा शरीरव्याधिको समीचीन औषधी रूप शरीर वा शक्ति है उस शक्तिसे हमारे जीवन को सुखी करो ॥ ४९ ॥ मावार्थ- हे रुद्र ! तुम्हारी कल्याणरूपिणी जो तनू सचके कल्याणसाघनी जो सब से- गौकी महौषधि है उस तनुके द्वारा हमको सुखी करो ॥ ४२ ॥ मन्त्रः । परि॑नोरु॒द्रस्य॑ह॒तिवृणक्तपरि॑खेषस्य॑ तिर॑घुायो? || अव॑स्थुराम॒घव॑द्भयस्तनुष्यु- मीस्तोकायुतन॑यायमुख ॥ ५० ॥ ॐ परिन इत्यस्य परमेष्ठी प्रजापतिर्देवा ऋ० | आर्षी छंदः । रुद्रो देवता | वि० पू० ॥ ५० ॥