पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/२२

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

ऽध्यायः २. ] भाष्यसहिता | (११) सप उसके शिरके अन्तर्वार्त होने से वह अनन्तशिर सपन्न है | सखों नेत्रों से युक्त होने से सह साक्ष अर्थात सब ज्ञानेन्द्रियसपन्न है । सहस्त्रों चरणों से युक्त अयत् कर्मेन्द्रिय संपन्न होनेसे यह सहस्रपात है वह पुरुष ब्रह्माण्डगोलकरूप भूमिको वा पंचभूतोंको तिर्थश, ऊ, नीचे, सम मोरसे व्याप्त करके वृश अंगुल परिमित देशको अतिक्रमण करके स्थित हुआ है। दशगुल ब्रह्मा- ण्डका सफ्लक्षण है, अर्थात ब्रह्माण्ड से बाहर भी सब ओर व्याप्त होकर स्थित है अथवा नामिके स्थान से वश अंगुल अतिक्रमण करके हृदय में स्थित है। ("सोष विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्त- क्योंसिः” इति श्रुतेः ) विज्ञानात्मा, हृदयम कर्मफल भुगाने के निमित्त अवस्थान करता है (हानु- पर्णा सयुना सखाया समानं वृक्षं परिपरवजाते। तयोरन्यः पिप्फलं स्याद्वयनश्नन्वन्पो अभिया कशीति” भग्वेदः ) इन छोको पूर्ण करने और शयन करनेसे वह पुरुष है ॥ १ ॥ मन्त्रः । पुरुषऽए॒वेद सय्यद्भूतवच॑ध्य॒म् ॥ उ॒तम॑त॒त्त्वस्येशा॑नो॒यदन्नैनाति॒रोहति । २॥ पुरुष इत्यस्य ना० ऋ० | निच्युदार्षीजगतीछन्दः । पुरुषो देवता | वि० पू० ॥ २ ॥ माध्यम् - (इदम् ) यत्किचिदर्तमानकालीनं ( चद्धृतम् ) यदतीतकालीनं ( यच्च ) ( माव्यम् ) भविष्यत्कालीनं तत् ( सर्वम् ) सम्पूर्णम् ( पुरुष एव ) परमात्मा एव यथास्मिन्कल्पे वर्तमानोः प्राणिदेहाः सर्वेऽपि विराटपुरुपस्यावयवाः तथैवातीतागामिनो- रपि कल्स्योईष्टव्यमिति भावः । (उत ) अपि (अमृतत्वस्य ) देवत्वस्य (ईशानः ) स्वामी स पुरुषः ( यत् ) यस्मात् ( अन्नेत्र ) प्राणिनां मोम्येनान्नेन फलेन निमित्तभूतेन ( अतिरोहति ) स्वीया कारणावस्थानतिक्रम्य परिदृश्यमाना, अगदवस्था प्रामोति । तस्मात्पुरुष एव माणिनां कर्मफलभोगाय जगदवस्थास्त्रीकारान्नेदं तस्य वस्तुत्वमित्यर्थः ॥ अमृतवस्यामरणधर्मस्येशानः मुक्तेरीशः यो हि मोक्षेश्वरो नासी म्रियत इत्यर्थः ॥२॥ मापार्य-जो यह वर्तमान जगत् हैं, जो अतीत जगत् और जो जो भविष्य जगत् है वह संपूर्ण पुरुषही है मर्यात् जैसे इस कल्पमें वर्तमान प्राणियों के देह विराट्रपुरुपके अवयव है वैसे ही अतीत और आनेवाले कल्पोंके भी जानने और जो कि प्राणियों के भाग्यसे वा अवरूप फके निमित्तसे अपनी कारण अवस्थाको अतिक्रमण करके जगत्की अवस्थाको प्राप्त होता है ( भयवा अन्नके निमित्त जो संपूर्ण अतिरोहण जन्म मृत्यु होती है, उस सबन्धमें अमृतत्व बेनेमें ईश्वर ही है) अर्थात् प्राणियोंके कर्मफल भुक्तानेको जगत्को अवस्था स्वीकार करता है। यदि कहो कि जो सब पुरुष है तो परिणामी भी हो सकता है इसपर कहते हैं-मरणधर्मर हित मुक्तिका अधिपति अर्थात् सपूर्ण जीवोंका जो कि ब्रह्मासे स्तम्बपर्यन्त हैं उनका अधिपति