पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/१४१

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

( १३२ ) रुद्राष्टाध्यायी- [ नवमो- वा वै स्वाद्दाकारेण वा देवेभ्यो प्रदीयत इति ९|३|३|१४ ते इति बसोधीरादो- ममन्त्राः समाप्ताः | [ यजु:०१८/२९ ] ॥ २९ ॥ माषार्थ- इस यज्ञके प्रसाद आयुकी वृद्धि हो, यज्ञके प्रसाद प्राण रोगरहित होकर बलिट- हों, इस यज्ञके प्रसादसे नेत्र इन्द्रिय उत्कृष्टताको प्राप्त हो, इस यज्ञके प्रसाद श्रोत्रहन्द्रियको श्रेष्ठता सिद्ध हो, इस यज्ञके प्रसाद वागिन्द्रियकी श्रेष्ठता सिद्ध हो, इस यज्ञके प्रमादसे मनकी स्वस्थता हो, इस यज्ञ प्रसादले आत्मा प्रसन्न हो, इस यज्ञके प्रसादसे ब्रह्म प्रसन्न हो, इस यज्ञके प्रसादसे ज्योति प्राप्त हो, इस यजके प्रसादसे सुख प्राप्त हो, इस यजके प्रसाद परमसुख प्राप्त हो, इस यज्ञके प्रसादसे महायज्ञ करनेशी सामर्थ्य माप्त हो, इस यज्ञके प्रसा दसे स्तोम यजु ऋक् साभ बृहत् और रयन्तर साम यह सबही प्रसन हो, इस यज्ञके प्रसा- इसे हम स्वर्गीय देवत्व प्राप्त करने तथा अमर होने में समर्थ हो, इस यज्ञके प्रसाद हम हिरण्यगर्भ प्रजापतिकी प्रियतम प्रजा होसकै । कयन कियेहुए समस्त देवताओंकी प्राप्तिक निमित्त ही यह बसोर्धारा हवन आहुत हुआ यह समस्त आहुतियां भी प्रकार गृहीत हो॥१९॥ विशेष-यज्ञ और उसका साधन तथा प्राणियोको जो कुछ आश्यकता होती है cri वर्णन इन मंत्रों कियागया यज्ञके फूलसे यह ऊपर कही ३४७ वस्तु सम्पन्न होती यह सब कुछ यज्ञके निमित्त ही सम्पादन हो । मनुष्य सर्वस ईश्वरका है और यज्ञसे सबकुळे प्राप्त होसकता है इस कारण यज्ञके निमित्त सम सम्पन्न हो यही प्रार्थना है ॥ २१ ॥ इति श्री. रुद्राके पण्डितज्वालाप्रसाद मिश्रकृत संस्कृतार्थ्यभाषामा प्यसमन्वितोऽप्रमोऽध्यायः अथ नवमोऽध्यायः । मन्त्रः । ॥ हरिः ॐ ॥ ऋचं वाच॒म्मप॑ते॒ मनोयजु [प्यप॑ये॒षाम॑प्या॒ाणम्ञप॑ये॒चक्षस्श्रोत्रपद्ये ।। बागोज सुहौजोमयि॑ष्प्राणापानौ ॥ १ ॥ ॐ ऋचं वाचमित्यस्य दधीच ऋषिः । जगती छन्दः । लिङ्गोक्का देवता । शान्तिपाठे विनियोगः ॥ १ ॥ माष्यम् - ( ऋचस्) ऋग्रूपासू ( वाचम् ) वाचम् ( प्रपये ) प्रविशामि शरणं व्रजामि ( यजुः ) यजूरूपम् ( मनः) मनः ( प्रपद्ये ) प्रविशामि (प्राणम् ) प्राण- रूपम् ( साम) साम (प्रपद्ये ) प्रविशामि ( चक्षुः ) चक्षुरिन्द्रियम् ( श्रोत्रम् ) श्रोत्रेन्द्रियं च ( प्रपद्ये ) प्रविशा मि ( वाक् ) वागिन्द्रियम् ( ओजः ) मानसं बलं वाष्टर्यम् ( खोज: ) शारीरं बलम् ( प्राणापानौ ) उच्चासनिवासवायू च एते ( सह) भूसन्दः ( माय) मध्ये वर्तन्ते । वागादिप्राणं सप्तदशाक्यवोपलक्षं सप्त- pure