पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/१३३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

( १२४ ) रुद्राष्टाध्यायी - [ अष्टमो- के फलसे देवतालोग मुझको आदिति प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको झुलोक प्रदान करें, इस यजके फलसे देवतालोग मुझको अंगुलि प्रदान करें इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको शक्तियें प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको प्रावी -आदि दिशाओंकी अनुकूलता प्रदान करें ॥ २२ ॥ मन्त्रः । व्व॒तञ्च॑मऋ॒तव॑श्च मे॒ तप॑श्चमेसंवत्स॒रश्च॑ मे होरा॒त्रेऽष्टीवेबृहन्त॒रेच॑मे य॒ज्ञेन॑क- लप्पन्ताम् ॥ २३ ॥ ॐ व्रतमित्यस्य देवा ऋषयः | पश्छिन्द | अग्निर्देवता । वि० पू० ॥ २३ ॥ भाष्यम् - ( व्रतम् ) नियमः ( ऋठवः ) वसन्तादयः (तपः ) कृच्छ्रचान्द्राय घ्यादि ( संवत्सरः ) प्रभवादिः ( अहोरात्रे ) दिननिशे ( ऊर्वशवे ) उरु चाष्टी- बन्तौ जानुनी च ऊष्ठोषे अवयवविशेषौ (बृहद्रयन्तरे ) एतन्नाम के सामनो ( मे ) मम ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) सम्पद्यन्ताम् | [ यजु० १८/२३ ] ॥ २३ ॥ भावार्थ- इस यज्ञके फलसे देवत'लोग मुझको शरीर के नियम प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको वसन्तआदि ऋतु प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवता लोग मुझको तप ( कृच्छ्रचान्द्रायण आदि ) प्रदान करें, इस यज्ञके फलस देवतालोग मुझको संवत्सर प्रदान करे, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको ऊरु और जानु प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको बृहद्रथन्तर साम प्रदान करे ॥ २३ ॥ मन्त्रः । एक का॑चमेति॒वश्च॑मेति॒स्रश्च॑पञ्च॑ मे॒पञ्च चमेस॒प्तच॑मेस॒प्तच॑मे॒नव॑चमे॒नव॑चमु॒ऽए कदशचमुऽएका॑दशचमे त्रयो॑दशचमि॒त्र यो॑दशचमे॒पञ्च॑दशचमे॒पञ्च॑दशचमेसुप्त शचमे] सुप्सद॑शचमे॒नव॑द॒शचमे॒नव॑द॒शचम॒