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( १२० ) रुद्राद्यध्यायो- [] अष्टमो आष्यम्-( मित्रः ) { चरुणः ) (धाता ) ( त्वष्टा ) ( मरुतः ) ( विश्वेदेवाः ) 'असिद्धाः । प्रत्येकामिन्द्रः । एते ( मे ) मम ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) सम्पद्यन्ताम् [ यजु १८११७ ] ॥ १७ ॥ भाषार्थ - मित्रदेवता, इन्द्र, वरुण, इन्द्र, धाता, इन्द्र, त्वष्टा, इन्द्र, मरुत, इन्द्र, विश्वेदेवा- "देश्ता और इन्द्रकी अनुकूलता यह सब इस यज्ञके फलसे देशतालोग मुझको प्रदान करें ॥ १७॥ मन्त्रः । } पथिवीच॑म॒ऽइन्द्र॑श्च॒न्तरि॑क्षञ्चमऽइन्द्र॑श्च द्यश्च॑म॒ऽइन्द्र॑श्चमे॒समा॑श्चमुऽइन्द्रश्चमे॒ नक्षं- आणि चम॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ दश॑श्चम॒ऽइन्दश्वमेषज्ञे- नंकल्प्पन्ताम् ॥ १८ ॥ ॐ पृथिवी चेत्यस्य देवा ऋषयः | भुरिकूळकरी छं० । अग्नि- देवता | वि० पू० ॥ १८ ॥ भाष्यम् (पृथिवी) पृथिवी (अन्तरक्षम्) अन्तरिक्षम् (:) दिवखैलोक्यम् ( समाः ) वषाधिष्ठात्र्यो देवता: ( नक्षत्राणि ) मशिन्यादीनि ( दिश: ) भागाद्याः एते ( मे ) सम ( यज्ञन कल्यन्ताम् ) सत्पद्यन्ताम् | [ यजु० १८/१८ ] ॥ १८ ॥ माषार्थ- इस यज्ञक फलते देवतालाग मुझको पृथिवी प्रदान करें, इस यज्ञके फल से देवता- लोग मुझको इन्द्र प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको अन्तरिक्षलोक प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको इन्द्र प्रदान करें, इस यज्ञ के फलसे देवतालोग मुझको द्यौ प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझका इन्द्र प्रदान करें इस यज्ञ के फलस देवतालोग मुझको वर्षाके अधिष्ठातृ देवता प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे दवसालो मुझको इन्द्र प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको नक्षत्र प्रदान करें, इस यज्ञ के फलसे देवतालोग मुझको इन्द्र प्रदान करें, इस यज्ञके फलते देवतालोग मुझको दिकू प्रदान करै, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको इन्द्र ऐश्वर्य प्रदान करें ॥ १८ ॥ मन्त्रः । अर्वशुश्चमेर ष्म्मश्च॒मेद्दा पत्यश्वमेधिपति- श्वमउपाधं शुश्र्चमेन्तयुमर्चऽऐन्द्रवायुव श्व॑मे मैत्रावरु॒णश्च॑मऽ आश्चि॒नश्च॑ मे