पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/११२

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

उध्यापः ७. ] माध्यसहिता | अथ सप्तमोऽध्यायः । मन्त्रः | हरिः ॐ उग्रश्वं सीमश्चध्वान्तश्च॒धुनिश्च।। सास॒ह्वाश्चभियुग्वाच॑विक्षिपस्वाहा ॥ १ ॥ ॐ उग्रश्चेत्यस्य परमेष्टा प्रजापतिऋषिः | गायत्री छन्दः । मरुतो देवताः । अरण्ये विमुखपुशेडाशहोमे वि० || १ || साष्यम् – ( उग्रः ) उस्कृष्टः ( च ) ( सोमः ) विभेत्यस्मादसौ मीमः ( च 2 ( ध्वान्तः ) ध्वनति शब्दं करोतीति ध्वान्तः ( च ) ( धुनिः ) धूनयति कंपयति शत्रून निति धुनिः (च) ( सातद्वान् ) सहतेः शत्रनाभिभवति स सहान् ( च ) ( अभि युवा ) अभियुनक्ति यस्मत्संमुख योगं मामोत्याभियुवा ( च ) ( विक्षिपः ) विविध क्षिपति रिनिति विक्षिपः, एते उम्रादिनायकाः सप्त मरुतः तेभ्यः ( स्वाहा ) सुहृत मस्तु [ यजु० ३९ १७ ] ॥ १ ॥ भाषार्थ- उत्कृष्ट क्रोधन स्वभाव और जिससे भय ढंगे भयानक स्वभाष और ध्वनिकारी और शत्रुओंको कम्पानेवाले और सबके तिरस्कार में समर्थ तथा समवस्तुओंके सहित योग बाले और प्राणीके शरीर बुद्धि आदि और वृक्षशाखादिक्षेपणकारी वा शत्रुओंके नाशक बायु देवताको प्रांतिके निमित्त यह आहुति देते हैं भी प्रकार गृहत हो ॥ १ ॥ माचार्य- जिस परमात्माने इस सब जगत्को उत्पन्न किया है वह तुमसे भिन्न होकद तुम्हारे हृदय में स्थित है ! तुम जो अज्ञान और वृथा जल्पनामै प्रवृत्त हो और पुत्रपौत्रला मादिसे तृप्त तथा स्वर्ग फसलोभमात्र के लिये यजानुष्ठान करते विचरण करते हो, इस कारध्य इसका तत्व अवगत नहीं होता, यह निष्काम कर्म और तत्त्वविचारसे ध्यान में आता है ॥२ मन्त्रः । वि॒िश्वक॑म्त्यज॑निष्टदे॒वऽआदिर्द्वन्धुर्वोऽt- भवद्वतीयैः ॥ तृतीय+पि॒ताश॑नि॒तीष॑धीन मुपाङ्गसँध्यदधात्पुरुन्ना ॥ २ ॥ भाषार्थ-विश्वकर्माने प्रथम देवगणको सृष्टि की, गन्धर्वगण उसकी दूसरी सृष्टि है, पर्जन्य उसको तीसरी सृष्टि है, यह औषधियों के उत्पादक पर्जन्य अनेक स्थलोंमें गर्भ धारण करते हैं